________________ समन्तभद्रका समय और डा० के. बी. पाठक 313 सिवाय भर्तृहरि खुद अपने वाक्यपदीय ग्रन्थको एक संग्रहग्रन्थ बतलाते हैं न्यायप्रस्थानमार्गास्तानभ्यस्य स्वं च दर्शनम् / प्रणीतो गुरुणाऽस्माकमयमागमसंग्रहः / / 2-460 उन्होंने पूर्व में एक बहुत बड़े संग्रहकी सूचना की है, जिसके अल्पज्ञानियों द्वारा लुतप्राय हो जानेपर पतञ्जलि ऋषिके द्वारा उसका पुन: कुछ उद्धार किया गया। इसीमे टीकाकार पुण्यराजने "एतेन संग्रहानुसारेण भगवता पतञ्जलिना संग्रहसंक्षेपमतमेव प्रायशो भाष्यमुपनिबद्धमित्युक्तं वेदितव्यम्' इस वाक्यके द्वारा पतञ्जलिके महाभाष्यको उस संग्रहका प्रायः 'संक्षेपभूत' बतलाया है / और भत हरिने इस ग्रन्थके प्रथम कांडमें यहां तक भी प्रतिपादित किया है कि पूर्व ऋषियोंके स्मृति-शास्त्रोंका प्राश्रय लेकर ही शिष्यों-द्वारा शब्दानुशासनकी रचना की जाती है तस्मादकृतकं शास्त्रं स्मृतिं वा सनिबन्धनम् / आश्रित्यारभ्यते शिष्ट: शब्दानामनुशासनम् // 43 // ऐमी हालतमें 'न च स्यात् प्रत्ययो लोके' इन शब्दोंका किसी दूसरे पूर्ववर्ती ग्रन्थ में पाया जाना कुछ भी अस्वाभाविक नही है। प्रस्तु। ___ यदि धर्मकीतिके पूर्ववर्ती किसी विद्वानने दिग्नाग-प्रनिपादित प्रत्यक्ष-लक्षण अथवा हेतु-लक्षणको बिना नामधामके उद्धृत करके उसका खण्डन किया हो और बादको दिग्नागके ग्रन्थोंकी अनुपलब्धिके कारण कोई शम्म धर्मकीर्तिके वाक्योंके माथ सादृश्य देखकर उसे धर्मकीर्तिपर आपत्ति करने वाला और इमलिये धर्मकीतिके बादका विद्वान समझ बैठे, तो उमका वह समझना जिस प्रकार मिथ्या तथा भ्रममूलक होगा उसी प्रकार भर्तृहरिके पूर्ववर्ती किसी विद्वान्को उसके महज़ किमी ऐसे पूर्ववर्ती वाक्यके उल्लेखके कारण जो भर्तृहरिके उक्त वाक्यके साथ कुछ मिलताजुलता हो, भर्तृहरिके बादका विद्वान् करार देना भी मिथ्या तथा भ्रममूलक होगा। प्रन: यह चौथा हेतु दोनों बातोंकी दृष्टिसे प्रसिद्ध है और इसलिये इसके माधारपर समन्तभद्रको भर्तृहरिके बादका विद्वान् करार नहीं दिया जासकता / पाँचवें हेतुमें एकान्तखण्डनके जिन प्रवतरणोंकी तरफ़ इशारा किया गया है उनपरसे यह कैसे स्पष्ट है कि पूज्यपाद समन्तभद्रसे पहले जीवित थे अर्थात