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________________ 314 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समन्तभद्र पूज्यपादके बाद हुए है-वह कुछ समझमें नहीं पाता! क्योंकि यह तो कहा नहीं जासकता कि सिद्धसेनने प्रसिद्ध हेत्वाभासका और पूज्यपाद (देवनन्दी) ने विरुद्धहेत्वाभासका पाविर्भाव किया है और समन्तभद्रने एकान्त-साधन को दूषित करने के लिये, चुकि इन दोनोंका प्रयोग किया है इसलिये वे इनके आविष्कर्ता सिद्धसेन और पूज्यपादके बाद हुए है। ऐसा कहना हेत्वाभासोंके इतिहासकी अनभिज्ञताको सूचित करेगा; क्योंकि ये हेत्वाभास न्यायशास्त्र में बहुत प्राचीनकालसे प्रचलित है। जब असिद्धादि हेत्वाभास पहलेसे प्रचलित थे तब एकान्त-साधनको दुषित करने के लिये किसीने उनमेंसे एकका, किसीने दूसरेका और किसीने एकसे अधिक हेत्वाभासोंका यदि प्रयोग किया है तो ये एक प्रकारकी घटनाएँ अथवा किसी किसी विषयमें किसी किसीकी प्रसिद्धि-कथाएं हुई, उनके मात्र उल्लेखक्रमको देखकर उसपरसे उनके अस्तित्व-क्रमका अनुमान करलेना निर्हेतुक है / उदाहरण के तौरपर नीचे लिखे श्लोकको लीजिये, जिसमें तीन विद्वानोकी एक एक विषयमें खास प्रसिद्धिका उल्लेख है प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् / धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमकण्टकम् / / यदि उल्लेखक्रममे इन विद्वानोंके अस्तित्वक्रमका अनुमान किया जाय तो अकलंकदेवको पूज्यपादसे पूर्वका विद्वान् मानना होगा। परन्तु ऐसा नहीं हैपूज्यपाद ईसाकी पांचवी शताब्दीके विद्वान् हैं और अकलंकदेवने उनकी सर्वार्थसिद्धिको साथमें लेकर 'राजवातिक' की रचना की है / अत: मात्र उल्लेखक्रमकी दृष्टिमे अस्तित्वक्रमका अनुमान करलेना ठीक नहीं है। यदि पाठकजीका ऐसा ही अनुमान हो तो सिद्धमेनका नाम पहले उल्लेखित होने के कारण उन्हें मिद्धसेनको पूज्यपादसे पहलेका विद्वान मानना होगा, और ऐसा मानना उनके पहले हेतुके विरुद्ध पड़ेगा: क्योंकि सिद्धसेनने अपने 'न्यायावतार' में प्रत्यक्षको 'अभ्रान्त' के अतिरिक्त ग्राहक' भी बतलाया है जो निर्णायक, व्यवसायात्मक अथवा सवि. कल्पकका वाचक है और उससे धर्मकीर्तिके प्रत्यक्ष-लक्षणपर प्रापत्ति होती है। इसीसे उसकी टीकामें कहा गया है- "तेन यत् ताथागतेः प्रत्यपादि 'प्रत्यक्ष कल्पनापाढमभ्रान्तमिति' तदपास्तं भवति / " और इसलिये अपने प्रथम हेतुके अनुसार उन्हें सिरसेनको धर्मकीतिके बादका विद्वान कहना होगा / सिद्ध
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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