________________ संमन्तभद्रका समय और डा० के. बी. पाठक 315 सेनका धर्मकीतिके बाद होना और पूज्यपादके पहले होना ये दोनों कथन परस्पर में विरुद्ध है; क्योंकि पूज्यपादका अस्तित्वसमय धर्मकीर्तिसे कोई दो शताब्दी पहलेका है। अतः महज उक्त अवतरणोंपरसे न तो हेत्वाभासोंके आविष्कारकी दृष्टिसे और न उल्लेखक्रमकी दृष्टि से ही समन्तभद्रको पूज्यपादके बादका विद्वान कहा जासकता है / तब एक सूरत अनुमानकी और भी रह जाती है-यद्यपि पाठकजीके शब्दोंपरसे उसका भी स्पष्टीकरण नहीं होता * और वह यह है कि, चूंकि समन्तभद्रके शिष्यने उक्त अवतरणोंमें पूज्यपाद ( देवनन्दी ) का नामोल्लेख किया है इसलिये पूज्यपाद समन्तभद्रसे पहले हुए हैं -यद्यपि इसपरसे वे ममन्तभद्रके ममकालीन भी कहे जासकते है / परन्तु यह अनुमान तभी बन सकता है जबकि यह सिद्ध कर दिया जाय कि एकान्तखंडनके कर्ता लक्ष्मीधर समन्तभद्रके साक्षात् शिष्य थे। उक्त अवतरणोपरमे इस गुरुशिष्य-सम्बन्धका कोई पता नही चलता, और इसलिये मुझे 'एकान्तखंडन' की उम प्रतिको देखनेकी ज़रूरत पैदा हुई जिसका पाठकजीने अपने लेखमें उल्लेख किया है और जो कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन-मठमें ताड़पत्रोपर पुरानी कन्नडलिपिमें मौजूद है / श्रीयुत ए० एन० उपाध्येजी एम०प० प्रोफेसर राजाराम कालिज कोल्हापुरके सौजन्य तथा अनुग्रहसे मुझे उक्त ग्रंथकी एक विश्वस्त प्रति ( Truc copy ) खुद प्रोफेसर साहबके द्वारा जॉच होकर प्राप्त हुई, और इसके लिये मैं प्रोफ़ेसर साहबका बहुत ही आभारी हूँ। ग्रन्थप्रतिको देखने से मालूम हुअा कि यह अथ अधूरा है--किसी कारणवश पूरा नहीं हो मका-और इमलिये इसमें ग्रंथकर्ताकी कोई प्रशस्ति नहीं है, न दुर्भाग्यमे ऐसी कोई सन्धियां ही हैं जिनमें प्रथकारने गुरुके नामोल्लेखपूर्वक अपना नाम दिया हो और न अन्यत्र ही कहीं ग्रन्थकारने प्रपनेको स्पष्टरूपसे समन्तभद्रका दीक्षित या समन्तभद्रशिष्य लिखा है / साथ ही, यह भी मालूम हुआ कि उक्त * पाठकजीके शब्द इस प्रकार है-From the passages cited above from the Ekantakhandana, it is clear that Pujyapada lived prior to Samantabhadra.