________________ 316 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अवतरणोंमें पाठकजीने 'तदुक्तं' रूपसे जो दो श्लोक दिये है वहाँ एक पहला ही श्लोक है और उसके बाद निम्न वाक्य देकर ग्रंथविषयका प्रारम्भ किया गया है "तदीयचरणाराधनाराधितसंवेदनविशेष नित्यायेकान्तवादविवादप्रथमवचनखण्डनप्रचण्डरचनाडम्बरो लक्ष्मीधरो धीरः पुनरसिद्धादि षटकमाह दूसरा श्लोक वस्तुतः ग्रन्थके मंगलाचरणपद्य 'जिनदेवं जगद्बन्धु'इत्यादि के अनन्तरवर्ती पद्य नं० 2 का पूर्वार्ध है और जिसका उत्तरार्ध निम्न प्रकार है / इसलिये वह ग्रन्थकारका अपना पद्य है, उसे भिन्न स्थानपर 'तदुक्त' रूपये देना पाठक महागयकी किसी गलतीका परिणाम है 'नो द्वौ ब्र ते वरेण्यः पटुतरधिपणः श्रीसमन्तादिभद्रः नच्छिष्यो लक्ष्मणन्तु प्रथित नयपथी वक्त्यमिद्ध्यादिपटकं / / " इम उत्तरार्धके बाद और 'तदक्त' में रहने कुछ गद्य है, जिमका उ नरांश पाठकजीने उद्धृत किया है और पूर्वाश, जिममे अथके विपयका कुछ दिग्दर्शन होता है, इस प्रकार है___ "निन्याोकान्तसाधनानामंकुगदिकं सकत के कार्यत्वाद यकाय तन सकतवं यथा घट: / काय च इदं नम्मात्सक कमेवत्यादीनाम् / " इस तरहपर यह ग्रन्थकी स्थिति है और इमपरमे ग्रन्थकारका नाम 'लक्ष्मीधर' के माथ लक्ष्मण' भी उपलब्ध होता है, जो लक्ष्मीधरका पर्यायनाम भी हो सकता है। जान पडता है ग्रन्थके प्रारम्भमे उक्त प्रकारमें प्रयुक्त हुए 'तच्छिष्यः और "तदीयचरणाराधनाराधितसंवेदनविशेषः" इन दो विशेषगोंपरसे ही पाठकजीन लक्ष्मीधरके विषयमें समन्तभद्रका साक्षात् शिष्य होनेकी कल्पना कर डाली है ! परन्तु वास्तवमै इन विशेषगोंगरमे लक्ष्मीधरको समन्तभद्रका साक्षात शिप्य समझना भूल है; क्योंकि लक्ष्मीधरने एकान्तसाधनके विषय में भिन्नकालीन तीन प्राचार्यो-गिद्ध मेन, देवनन्दी ( पूज्यपाद ) भोर समन्तभद्रके मतोंका उल्लेख करके जो 'नच्छिष्यः' और 'तदीय चरणाराधनाराधितसंवेदनविशेषः' ऐसे अपने दो विशेषण दिये हैं उनके द्वारा उसने अपने को उक्त तीनों प्राचार्योका शिष्य ( उपदेश्य ) मूचित किया है, जिसका फलि.