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________________ समन्तभद्र का समय और डा० के. बी. पाठक 317 तार्थ है परम्परा-शिष्य ( उपदेश्य ) / और यह बात 'तदुक्तं' रूपसे दिये हुए श्लोकको 'इति' शब्दसे पृथक करके उसके बाद प्रयुक्त किये गये तदीयादि द्वितीय विशेषणपदसे और भी स्पष्टताके साथ झलकती है। 'तच्छिष्यः' का अर्थ 'तस्य समन्तभद्रस्य शिष्यः' नहीं किन्तु 'तेषां सिद्धसेनादीनां शिष्यः' ऐसा होना चाहिये / और उसपरसे किसीको यह भ्रम भी न होना चाहिये कि 'उनके चरणोंकी पाराधना-सेवासे प्राप्त हुआ है ज्ञानविशेष जिसको' पदके इस प्राशयसे तो वह माक्षात् शिष्य मालूम होता है; क्योंकि आराधना प्रत्यक्ष ही नहीं . किन्तु परोक्ष भी होती है, बल्कि अधिकतर परोक्ष ही होती है / और चरणाराधनाका अभिप्राय शरीरके अंगरूप पैरोंकी पूजा नहीं, किन्तु उनके पदोंकीवाक्योंकी-सेवा-उपासना है, जिससे ज्ञान-विशेषकी प्राप्ति होती है। ऐसे बहुतसे उदाहरण देखने में आते है जिनमे शताब्दियों पहलेके विद्वानोंको गुरुरूपसे अथवा प्रपनको उनका शिष्यरूपमें उल्लेखित किया गया है, और वे सब परम्परीण गुमशिप्य के उल्लेख है--साक्षात् के नही / नमूनके तौरपर 'नीतिसार' के निम्न प्रशस्ति वाक्यको लीजिये, जिममे ग्रन्थकार इन्द्रनन्दीन हजार वर्षसे भी अधिक पहले के प्राचार्य कुन्दकुन्दस्वामीका अपनेको शिष्य ( विनेय ) मूचित किया है-- "-स: श्रीमानिन्द्रनन्दी जगति विजयतां भूरिभाषानुभावी देवज्ञः कुन्दकुन्दप्रभुपदविनयः म्बागमाचारचंचुः // " इसी तरह एकान्तखंडनके उक्त विशंपग्गपद भी परम्परीण शिष्यताके उल्लेखको लिये हुए है-साक्षात् शिप्यताके नही / यदि लक्ष्मीधर समन्तभद्रका साक्षात् शिष्य होता तो वह 'तदुक्तं रूपसे उस श्लोकको न देता, जिसमें सिद्ध मेनादिकी तरह समन्तभद्रकी भी एकान्त साधनके विषयमें एक खास प्रसिद्धि का उल्लेख किया गया है और वह उल्लेखवाक्य किसी दूसरे विद्वान्का है, जिससे ग्रन्थकार समन्तभद्रसे बहुत पीछे काइतने पोछेका जब कि वह प्रसिद्धि एक लोकोक्तिका रूप बन गई थी-विद्वान् जान पड़ता है। यह प्रसिद्धि का श्लोक सिद्धि विनिश्चयटीका और न्यायविनिश्चयविवरणमें निम्न रूपमे पाया जाता है
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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