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________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रसिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः / द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने / न्यायविनिश्चय-विवरणमें वादिराजने इसे 'तदुक्तं' पदके साथ दिया है पौर सिद्धि विनिश्चयटीकामें अनन्तवीयं प्राचार्यने, जो कि प्रकलंकदेवके अन्योंके प्रधान व्याख्याकार है और अपने बादके व्याख्याकारों प्रभाचन्द्र-बादिराणादिके द्वारा अतीव पूज्यभाव तया कृतज्ञताके व्यक्तीकरणपूर्वक म्मूत किये गये है,इम श्लोकको एक बार पांचवें प्रस्तावमें "यद्वक्ष्यत्यमिद्धः सिद्धसेनस्य" इत्यादि कपमे उद्धृत किया है, फिर छठे प्रस्तावमें इमे पुनः पूरा दिया है। और वहाँपर इसके पदोंकी श्याख्या भी की है। इसमे यह श्लोक प्रकलकदेवके सिद्धिविनिश्चय ग्रंपके 'हेतुलक्षणसिद्धि' नामक छठे प्रस्तावका है। पोर इनिये लक्ष्मीधर प्रकनकदेवके बादका विद्वान् मालूम होता है / वह यस्ततः टन विद्यानन्दकं भी बाद हमा है जिन्होंने अकलंकदेवकी 'अप्रशनी के प्रतिवादी कुमारिलके मनका अपने स्वार्थश्लोकवातिक प्रादि ग्रथों में तीन खण्डन किया है क्योकि उसने एकालखण्डन में "तथा चोक्त विद्यानन्दम्वामिभिः" इम बायरे साथ प्राप्तपीना' का निम्न वाक्य उद्धृत किया है, जो कि विद्यानन्दकी उनके नन्वार्थ-लोकवातिक और अष्टमहमी प्रादि कई ग्रंथोंके बादको कृति है- . सनि धर्मविशेषे हि तीर्थकृत्वसमाये / ब्याजिनेश्वरो मार्ग न मानाडेव केवलान / / ऐसी हालन में यह स्पष्ट है कि नामीधर ममन्नभद्मा माक्षान् शिष्य नहीं या-ममन्तभद्रके माक्षात शियों में शिवकोटि और शिवायन नामक दो भाषायौका ही नामोल्लेख मिलता है -वह विद्यानन्दका उक्त प्रकार उम्नेस करने के कारण वास्तत्रमें गमन्तभद्रमे कई शताब्दी पीछे का विद्वान मात्रम होता है और यह बात आगे चल कर और स्पष्ट हो जायेगी / यहाँपर सिर्फ इतना ही जान लेना चाहिये कि जब लक्ष्मीधर समन्तभद्रका माक्षात शिष्य नही था. तब उसके द्वारा पूज्यपादका नामोल्लेख होना इस गतके लिये कोई नियामक नही * देखो, विक्रान्तकौरव, जिनेन्दकल्याणाम्युदय, अथवा स्वामी ममनमः (इतिहास) पृ० 65 प्रादि /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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