________________ 312 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है-उनकी रचनामोंमें शब्दसादृश्यका होना और भी अधिक स्वाभाविक है / जैसा कि पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दकी कृतियोंके क्रमिक अध्ययनसे जाना जाता है अथवा दिग्नाग और धर्मकीतिकी रचनामोंकी तुलनांसे पाया जाता है / दिग्नागने प्रत्यक्षका लक्षण 'कल्पनापोढं'और हेतुका लक्षण "ग्राह्यधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुः" किया तब धर्मकीर्तिने प्रत्यक्षका लक्षण 'कल्पनापोढमभ्रान्त' पौर हेतुका लक्षण “पक्षर्धमस्तदंशेन व्याप्तो हेतुः" किया है (r) / दोनोंमें कितना अधिक शब्दसादृश्य है, इसे बतलाने की ज़रूरत नहीं / इसी तरह भर्तृहरिका 'न सोस्ति प्रत्ययो लोके, नामका श्लोक भी अपने पूर्ववर्ती किसी विद्वान्के वाक्यका अनुसरण जान पड़ता है / बहुत सम्भव है कि वह निम्न वाक्यका ही अनुसरण हो, जो विद्यानंदके श्लोकवातिक और प्रभाचंद्रके प्रमेयकमलमार्तण्डमें समानरूपसे उद्धृत पाया जाता है और अपने उत्तरार्धमें थोड़ेसे शब्दभेदको लिये हुए है,और यह भी सम्भव है कि उसे ही लक्ष्यमें रखकर 'न चास्ति प्रत्ययो लोके' नामक उस श्लोककी रचना हुई हो जिमे हरिभद्रने उद्धृत किया है न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाहते / अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्दे प्रतिष्ठितम् / / प्रमेयकमलमार्तण्डमें यह श्लोक और साथमें दो श्लोक प्रौर भी, ऐसे तीन श्लोक 'तदुक्तं' शब्दके साथ एक ही जगह पर उद्धृत किये गये है, और इससे ऐसा जान पड़ता है कि वे किमी ऐमे ग्रन्थमे उद्धृत किये गये हैं जिसमें वे इसी क्रमको लिये हुए होंगे। भर्तृहरिके 'वाक्यपदीय' ग्रन्थमें वे इस क्रमको लिये हुए नहीं है, बल्कि 'अनादिनिधनं शब्दब्रह्मतत्त्वं यदक्षर' नामका तीसरा श्लोक जरासे पाठभेदके साथ वाक्यपदीयके प्रथम काण्डका पहला श्लोक है और शेष दो श्लोक ( पहला उपयुक्त शब्द भेदको लिये हुए) उसमें क्रमश: नम्बर 124, 125 पर पाये जाते है / इससे भी किसी दूसरे ऐसे प्राचीन ग्रंथकी सम्भावना दृढ होती है जिसका भर्तृहरिने अनुकरण किया हो / इसके हेतुके ये दोनों लक्षण पाठकजीने एनल्सके उरी नम्बरमें प्रकाशित अपने दूसरे लेखमें उद्धृत किये है।