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समंतभद्रका एक और परिचय पद्य
२४३ प्रकाशमें पाए है और उनसे ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र और तन्त्र जैसे विषयोंमें भी समन्तभद्रकी निपुणताका पता चलता है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमें अंगहीन सम्यग्दर्शनको जन्मसन्ततिके छेदनमें असमर्थ बतलाते हुए, जो विषवेदनाके हरने में न्यूनाक्षरमन्त्रकी असमर्थताका उदाहरण दिया है वह और शिलालेखों तथा ग्रंथोंमे 'स्वमन्त्रवचन-व्याहूतचन्द्रप्रभ:' जैमे वाक्योंका जो प्रयोग पाया जाता है वह सब भी प्रापके मन्त्रविशेषज्ञ तथा मन्त्रवादी होने का सूचक है। अथवा यों कहिये कि आपके 'मान्त्रिक विशेषणमे अब उन सब कथनोंकी यथार्यताको अच्छा पोषण मिलता है । इधर हवी शताब्दीके विद्वान् उग्रादित्याचायने अपने 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रंथमें 'अष्टाङ्गमप्यविलमत्र समन्तभद्रः प्रोक्तं सविस्तरवचोविभवैर्विशेषात' इत्यादि पद्य (२०-८६) के द्वारा ममन्नभद्रकी अष्टाङ्ग वैद्यकविषयपर विस्तृत रचनाका जो उल्लेख किया है उसको ठीक बतलानेमे 'भिषक्' विशेषण अच्छा सहायक जान पड़ना है ।
अन्नके दो विशेषण 'श्राज्ञासिद्ध' और 'सिद्ध सारम्बत' तो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और उनमे स्वामी ममन्तभद्रका असाधारण व्यक्तित्व बहुत कुछ सामने आ जाता है । इन विशेषणोंको प्रस्तुत करते हुए स्वामीजी राजाको सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि-'हे राजन् ! मैं इस समुद्रवलया पृथ्वीपर 'प्राज्ञासिद्ध' है --जो प्रादेश दू वही होता है । और अधिक क्या कहा जाय 'मै सिद्धसारस्वत हूं-सरस्वती मुझे सिद्ध है।' इस सरस्वतीकी मिद्धि अथवा वचनसिदि में ही गमन्नाभद्रकी उस सफलता का सारा रहस्य मनिहित है जो स्थान स्थानपर वादघोषणाएं करने पर उन्हें प्राप्त हुई थी अथवा एक शिलालेम्वके कथनानुमार वीर जिनेन्द्र के शासनतीर्थकी हजारगुणी वृद्धि करनेके रूपमें वे जिसे अधिकृत कर सके थे ।
अनेक विद्वानोने 'सरस्वती-स्वरविहारभूमयः' जैसे पदोंके द्वारा समन्तभद्र को जो सरस्वतीकी स्वच्छन्द विहारभूमि प्रकट किया है और उनके रचे हुए प्रबन्ध (ग्रंथ) रूप उज्ज्वल सरोवरमें सरस्वतीको क्रीड़ा करती हुई बतलाया है उन सब
*देखो, सत्साघुस्मरणमंगलपाठ, पृ० ३४, ४६ ।
1 देखो, बेलूरताल्लुकेका शिलालेख नं० १७ (E. C. V.) तथा सत्साधुस्मरणमंगल पाठ, पृ० ५१