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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
इन ग्रंथों में जिस स्तोत्र प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिनसे कठिन तात्विक विवेचनोंको योग्य स्थान दिया गया है वह समंतभद्रसे पहले के ग्रंथों में प्रायः नहीं पाई जाती अथवा बहुत ही कम उपलब्ध होती है । समंतभद्रने, अपने स्तुतिग्रंथोंके द्वारा, स्तुतिविद्याका खास तौरसे उद्धार तथा संस्कार किया है और इसी लिये वे 'स्तुतिकार' कहलाते थे । उन्हें 'आद्य स्तुतिकार' होनेका भी गौरव प्राप्त था । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रधान आचार्य श्रीहेमचंद्रने भी अपने 'सिद्ध है मशब्दानुशासन' व्याकरणके द्वितीय-मूत्रकी व्याख्या में "स्तुतिकारोऽप्याह" इस वाक्यके द्वारा आपको 'स्तुतिकार' लिखा है और साथ ही आपके 'स्वयंभू स्तोत्र' का निम्न पद्य उद्धृत किया है
नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना। इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेत फलां यतस्ततो भवन्तमार्या प्रणता हितैषिणः ||
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इसी पद्यको श्वेताम्बराग्रणी श्रीमलयगिरिमुनिं भी, अपनी आवश्यकमूत्र' की टीका, स्तुतिकारोऽप्याह इस परिचय - वाक्यके साथ उद्धृत किया है, और इस तरह पर समन्तभद्रको 'आद्यस्तुतिकार' - सबमे प्रथम अथवा सबमे श्रेष्ठ स्तुतिकार - सूचित किया है । इन उल्लेखवाक्योंसे यह भी पाया जाना है कि समन्तभद्र की स्तुतिकार' रूपमे भी बहुत अधिक प्रसिद्धि थी और इसीलिये 'स्तुतिकार' के साथमे उनका नाम देनेकी शायद कोई जरूरत नही समझी गई ।
समन्तभद्र इस स्तुतिरचनाके इतने प्रेमी क्यों थ और उन्होंने क्यों इस मार्गको अधिक पसंद किया, इसका साधारण कारण यद्यपि, उनका भक्ति- उठेक अथवा भक्तिविशेष हो सकता है; परन्तु यहाँ पर में उन्ही शब्द में दस विषय
tat सनातन जैनग्रंथमाला में प्रकाशित 'स्वयभृस्तोत्र में और स्वयंभूस्तोत्रकी प्रभाचंद्राचार्यविरचित संस्कृतटीका 'लांचनामे की जगह सत्यनाञ्छिताः' और 'फला:' की जगह 'गुरणा:' पाठ पाया जाता है ।
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* इस पर मुनि जिनविजयजी अपने 'साहित्यसंशोधक' के प्रथम प्रक लिखते है - "इस उल्लेख से स्पष्ट जाना जाता है कि ये ( समन्तभद्र ) प्रसिद्ध स्तुतिकार माने जाते थे, इतना ही नहीं परन्तु प्राद्य - सबसे पहले होनेवाले - -स्तुतिकारका मान प्राप्त थे ।"