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स्वामी समन्तमद्र मुस्तुत्यां व्यसनं शिरोनतिपर सेवेडशी येन ते
तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ।।११४|| अर्थात्-हे भगवन्, आपके मतमें अथवा आपके ही विषयमें मेरी सुश्रद्धा है-अन्धश्रद्धा नहीं-, मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए है, मैं पूजन भी आपका ही करता हूँ, मेरे हाथ आपको ही प्रणामांजलि करनेके निमित है, मेरे कान प्रापकी ही गुणकथाको सुननेमे लीन रहते हैं, मेरी आँखें आपके ही रूपको देखती है, मुझे जो त्र्यमन + है वह भी आपकी ही सुन्दर स्तुतियों के रचनेका है और मेरा मस्तक भी आपको ही प्रणाम करनेमें तत्पर रहता है; इस प्रकारकी चूकि मेरी मेवा है.---मैं निरन्तर ही प्रापका इस तरह पर मेवन किया करता हूँ-इमी लिये हे तेज.पते ! ( केवलज्ञानम्वामिन् । ) में तेजस्वी हैं, मुजन हूँ और मुकृती ( पुण्यवान ) हैं।
ममंतभद्र के इन मच्चे हार्दिक उद्गारोमे यह स्पष्ट चित्र विच जाता है कि वे कैसे और कितने 'अहंद्भक्त' थे और उन्होंने कहाँ नक अपनेको ग्रहणमेवाके लिये अपंग कर दिया था । अहंद्गुणोंमें इतनी अधिक प्रीनि होनेमे ही वे प्रहन्त होने के योग्य और अहन्नोमें भी तीर्थकर होने के योग्य पुण्य मंचय कर सके हैं, इसमें जग भी संदेह नहीं है । अहंद्गुग्गोंकी प्रनियादक मुन्दर मृन्दर स्तुतियाँ रचनेकी पोर उनकी बड़ी रूचि थी, उन्होंने टमीको अगना व्यमन लिखा है
और यह बिल्कुल ठीक है। ममतभद्रके जितने भी ग्रन्थ पाये जाते हैं उनमेमे कुछको छोडकर शेष सब ग्रन्थ म्नोत्रोंके ही को लिये हुए हैं और उनमे समंतभद्रकी अद्वितीय अहंशक्ति प्रकट होती है। जिनस्तुतिगतक' के सिवाय देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयभूम्तोत्र, वे प्रारक वाम स्तुतिग्रथ है ।
ममतभद्रके इम उल्नेबमे रोमा पाया जाता है कि यह 'जिनमतक' ग्रन्थ उस ममय बना है जब कि ममन्नभद्र कितनी ही मुन्दर मुन्दर स्तुतियोंस्तुनिग्रन्थों का निर्मागा कर चुके थे और नुतिरचना उनका एक व्यसन बन चुका था। प्राश्चर्य नही नो देवागम, युक्यनुशासन और स्वयंभू नामके स्तोत्र इम ग्रन्थमे पहले ही बन चुके हों और ऐसी मुन्दर स्तुतियोंके कारण ही समंतभद्र अपने स्तुनिव्यमनको 'मुस्तुतिव्यमन' लिखनेके लिये समर्थ हो सके हों।