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________________ २०० जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 'तीर्थंकर' होंगे । भारतमें 'भावी तीर्थंकर' होने का यह सौभाग्य, शलाका पुरुषों तथा श्रेणिक राजाके साथ, एक समंतभद्रको ही प्राप्त है और इससे समंतभद्रके इतिहासका --- उनके चरित्रका - गौरव और भी बढ़ जाता है। साथ ही, यह भी मालूम हो जाता है कि आप १ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसम्पन्नता, ३ शीलव्रतेध्वनतिचार, ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५ संवेग, ६ शक्तितस्त्याग, ७ शक्तितस्तप, ८ साघुसमाधि, ६ वैयावृत्यकरण, १० अर्हद्भक्ति, ११ प्राचार्यभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति, १४ आवश्यकापरिहार, १५ मार्गप्रभावना और १६ प्रवचनवत्सलत्व, इन सोलह गुरणोंसे प्राय: युक्त थे - इनकी उच्च गहरी भावना से प्रापका प्रात्मा भावित था-व — क्योंकि दर्शनविशुद्धिको लिये हुए, ये ही गुण समस्त अथवा व्यस्तरूपसे आगम में तीर्थंकरप्रकृति नामक ' नामकर्म'की महापुण्यप्रकृतिके ग्राम के कारण कहे गये है । इन गुणोका स्वरूप तत्वार्थ सूत्रकी बहुतसी टीकाओं तथा दूसरे भी कितने ही ग्रन्थोंमें विद्यादरूपमे दिया हुआ है, इसलिये उनकी यहाँ पर कोई व्याख्या करनेकी ज़रूरत नही है । हाँ, इतना जरूर बतलाना होगा कि दर्शनविशुद्धिके साथ साथ, समतभद्रकी 'अर्हद्भक्ति' बहुत बढी चढी थी, वह बड़े ही उच्चकोटिके विकासको लिये हुए थी । उसमें अंधश्रद्धा अथवा अंधविश्वासको स्थान नहीं था. • गुरगज्ञता गुणप्रीति और हृदयकी सरलता ही उसका एक आधार था, और इस लिये वह एकदम शुद्ध तथा निर्दोष थी । अपनी इस शुद्ध भन्तिके प्रतापसे ही समंतभद्र इतने अधिक प्रतापी, तेजस्वी तथा पुण्याधिकारी हुए मालूम होते हैं। उन्होंने स्वय भी इस बात का अनुभव किया था, और इमीगे वे अपने 'जिनस्तुतिशतक' ( स्तुतिविद्या) के अन्त में लिम्बने है सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचनं चापि तं हस्तावंजलये कथा श्रुतिरतः कर्णोऽक्षि मंप्रेक्षते । * देखो, तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके घंटे प्रध्यायका २४वाँ सूत्र, श्रीर उसके 'ratcarfre' भाष्यका निम्न पद्य efragaurrat arcनोर्थकृत्वस्य हेतवः । समस्ता स्पा वा हग्विशुद्धया समन्विताः ॥
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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