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स्वामी समन्तभद्र
१६४ श्रीमूलसंघव्योमेन्दभरते भावितीर्थकृद्देशे समंतभद्राख्यो मुनिर्जीयात्पदचि कः ।। -विक्रान्तकौरव प्र० श्रीमूलसंघव्योम्नेन्दर्भारते भावितीर्थकृद्देशे समन्तभद्रार्यो जीयात्प्राप्तपद्धि कः ।।
-जिनेंद्रकल्याणाभ्युदय उक्तं च समन्तभद्रेणात्मर्पिगीकाले आगामिनिभविष्यत्तीर्थकर-परमदेवेन-'काले कल्पशतेऽपि च' (इत्यादि रत्नकरंड' का पूरा पद्य दिया है।)
-श्रुतसागरकृत-पप्राभृतटीका कृत्वा श्रीमजिनेन्द्राणां शासनम्य प्रभावनां । वर्मोक्षदायिनी धीरो भावितीर्थकरो गुणी ।
----नेमिदनकृत पागधनाकथाकोश। आ भावि नीर्थकरन अप्प ममंतभद्रम्वामिगलु (गजावलिकथे) * अट्टहरी गाव पडिहरि चकिचक्कं य एय बलभहो ।
मरिणय समंतभा तित्थयरा हंति गिगयमेगा | श्रीवद्धमान महावीरस्वामी निर्वाण के बाद सैकड़ों ही ग्रन्छे अच्छे महात्मा प्राचार्य तथा मुनिराज यहा हो गये है परंतु उनमेमे दुसरे किमी भी प्राचार्य नथा मुनिराजके विषयमें यह उल्लेख नहीं मिलता कि वे ग्रागेको इम देशमै
इम गाथामे लिखा है कि ---पाठ नागयगण, नौ प्रतिनारायग, चार चक्रवर्ती, एक बलभद्र, श्रेणिक और ममन्नभद्र ये ( २८ पुष्प प्रागेको) नियमसे नीर्थकर होंगे।
यह गाथा कौनमें मूलग्रन्यकी है, इसका अभीतक मुझे काई ठीक पता नहीं चला । पं० जिनदाम पाश्वनाथ जो फडकुलेने इमे स्वयंभूस्तोत्रके उस संस्करगामें उद्धन किया है जिसे उन्होंने मंस्कृलटीका तथा मगठीअनुवादसहित प्रकाशित कराया है। मेरे दर्यापन करने पर पंडितजीने सूचित किया है कि यह गाथा 'चर्चाममाधान' नामक ग्रंथमें पाई जाती है। ग्रन्थके इस नाम परसे ऐसा मालूम होता है कि वहाँ भी यह गाथा उद्धन ही होगी और किसी दूसरे ही पुरातन ग्रंथकी जान पड़ती है ।