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१८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश केवल 'स्वामी' पदके प्रयोग-द्वारा ही आपका नामोल्लेख किया है * और इससे यह बात सहजहीमें समझमें आ सकती है कि प्राचार्य महोदयकी 'स्वामी' रूपमे कितनी अधिक प्रसिद्धि थी। निःसंदेह यह पद आपकी महती प्रतिष्ठा
और असाधारण महत्ताका द्योतक है । आप सचमुच ही विद्वानोंके स्वामी थे, त्यागियोंके स्वामी थे, तपस्वियोंके स्वामी थे, ऋषिमुनियोंके स्वामी थे, सद्गुरिणयों के स्वामी थे, सत्कृतियोंके स्वामी थे और लोकहितैषियोंके स्वामी थे।
भावी तीर्थकर त्व
समन्तभद्रके लोकहितकी मात्रा इतनी बढ़ी हुई थी कि उन्हें दिन गत उमीके मपादनकी एक धुन रहती थी; उनका मन, उनका वचन और उनका गरीर सब उमी अोर लगा हुआ था; वे विश्वभरको अपना कुटुम्ब समझते थे-उनके हृदयमे 'विश्वप्रेम जागृत था--और एक कुटुम्बीके उद्धारकी तरह वे विश्वभरका उद्धार करनेमे सदा मावधान रहते थे। वस्नुतत्वकी मम्यक् अनुभूनिके माथ, अपनी इम योगपरिगनिके द्वारा ही उन्होंने उम महत् , नि:मीम तथा मर्वातिशाया पुण्यको मंचित किया मालूम होता है जिसके कारण वे दमी भारतवर्ष मे 'तीथंकर' होनेवाले हैं-धर्मतीर्थको चलाने के लिये अवतार लेनिवाले है । आपके 'भावी तीथंकर होने का उल्लेख कितने ही ग्रंथों में पाया जाता है, जिनके कुछ अवतरण नीचे दिये जाते हैं
देखो-वादिगजमूरिकृत पार्श्वनाथचरितका 'स्वामिनश्चरित' नामका पद्य जो ऊपर उद्धृत किया गया है, पं० ग्रागाधरकृन मागारधर्मामृन और ग्रनगारधर्मामृतकी टीकाओंके 'स्वाम्युक्ताष्टमूलगुगणपक्षे, इति स्वामिमतेन दर्शनिको भवेत्, स्वामिमतेन त्विमे (अनिचारा: ), अथाह स्वामी यथा, नथा च स्वामिमूक्तानि' इत्यादि पद ;न्यायदीपिकाका 'तदुत्त स्वामिभिरेव' इम वाक्पके माथ 'देवागम' की दो कारिकामोंका अवतरण, और श्रीविद्यानंदाचार्यकृत प्रमहरी
आदि ग्रन्थोंके कितने ही पद्य तथा वाक्य जिनमेंमे नित्याचे कान्त' प्रादि कुछ पद्य ऊपर उद्धृत किये जा चुके है।
+ "सर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्याधिपतित्वकृत् ।" -श्लोकवानिक