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स्वामी समन्तभद्र
१६७ लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं और प्रकृत पदार्थके गुण-दोषोंको जाननेकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र 'हितान्वेषण के उपायस्वरूप' reat गुणकथा साथ, कहा गया है। इसके सिवाय, जिस भवपाशको श्रापने छेद दिया है उसे छेदना - अपने और दूसरोंके संसारबन्धनों को तोड़ना -- हमें भी इष्ट है और इसलिये वह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उपपत्तिका एक हेतु हैं ।' इससे स्पष्ट है कि समंतभद्रके ग्रंथोंका प्रणयन - - उनके वचनोंका अवतार - किसी तुच्छ रागद्वेष वशवर्ती होकर नही हुग्रा है । वह श्राचार्य महोदयकी उदारता तथा प्रेक्षापूर्व कारिताको लिये हुए है और उसमें उनकी श्रद्धा तथा गुणज्ञना दोनों ही बातें पाई जानी हैं। साथ ही, यह भी प्रकट है कि समंतभद्र के ग्रंथोंका उद्देश्य महान है, लोकहितको लिये हुए है, और उनका प्रायः कोई भी विशेष कथन की अच्छी जांनके विना निर्दिष्ट हुआ नहीं जान पड़ता ।
यहां तक इस सब कथनसे ऐसा मालूम होता है कि समंतभद्र अपने इन सब गुणों के कारण ही लोक में अत्यंत महनीय तथा पूजनीय थे और उन्होंने देश-देशान्तरोंमें अपनी अनन्यसाधारण कीर्तिको प्रतिष्ठित किया था । निःसन्देह, वे मोधरूप थे, श्रेष्ठगुणों के ग्रावास थे, निर्दोष थे और उनकी यश कान्तिमे तीनों लोक अथवा भारतके उत्तर, दक्षिण और मध्य ये तीनों विभाग कालिमान थे - उनका यास्तेज सर्वत्र फैला हुआ था, जैसा कि श्रीसुनन्दी श्राचार्यके निम्न वाक्यमे पाया जाना है
समन्तभद्रं साधं स्नुत्रे वरगुग्णालयं । निमलं यद्यशष्कान्तं बभूव भुवनत्रयं ||२|| -जिनशतकटीका ।
अपने इन सब पूज्य गुग्गों की वजहसे ही सपनभद्र लोक में 'स्वामी' पदसे वाम तौर पर विभूषित थे । लोग उन्हें 'स्वामी' 'स्वामीजी' कहकर ही पुकारते थे, और बड़े बड़े प्राचार्यों तथा विद्वानाने भी उन्हें प्राय: इसी विशेष के साथ स्मरण किया है । यद्यपि और भी कितने ही आचार्य 'स्वामी' कहलाते थे परन्तु उनके साथ यह विशेषगा उतना रूठ नही है जितना कि समनभद्रके साथ रूढ जान पड़ता है— समंतभद्रके नामका तो यह प्रायः एक अंग ही बन गया 1 इससे कितने ही महान् प्राचार्यों तथा विद्वानोंने अनेक स्थानों पर नाम न देकर,