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________________ स्वामी समन्तभद्र २०३ को कुछ और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि समन्तभद्रका इन स्तुति स्तोत्रोंके विषय में क्या भाव था और वे उन्हें किस महत्त्वकी दृष्टिसे देखते थे । आप अपने 'स्वयं स्तोत्र' में लिखते हैं स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल परिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायमपथे स्तुयान्न त्या विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ||११६ || अर्थात् - स्तुति के समय और स्थानपर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो श्रीर फलकी प्राप्ति भी चाहे सोधी उसके द्वारा होती हो या न होती हो, परन्तु साधु स्तोताकी स्तुति कुशलपरिणामको पुण्यप्रसाधक परिणामोंकी- --कारण जरूर होती है, और वह कुशलपरिणाम अथवा तज्जन्य पुण्यविशेष श्रेय फलका दाता है । जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतामे श्रेयोमार्ग सुलभ है- अपनी स्तुतिके द्वारा प्राप्त है तब, हे सर्वदा प्रभिपूज्य नमिजिन ! ऐसा कौन परीक्षापूर्वकारी विद्वान् अथवा विवेकी होगा जो आपकी स्तुति न करेगा ? जरूर करेगा । इससे स्पष्ट है कि समनभद्र इन ग्रहस्तोत्र के द्वारा श्रेयोमार्गको सुलभ और स्वाधीन मानते थे, उन्होंने इन्हें 'जन्मारण्यशिखी' + - जन्ममरणरूपी संमारवनको भस्म करनेवाली अग्नि- तक लिखा है और ये उनकी उस निःश्रेयस -- मुक्तिप्रातिविषयक - भावना के पोषक थे जिसमे वे सदा सावधान रहते थे। इसी लिये उन्होंने इन 'जिन स्तुनियों को अपना व्यसन बनाया था उनका उपयोग प्रायः ऐसे ही शुभ कामोंमें लगा रहता था। यही वजह थी कि संसारमें उनकी उन्नतिका - उनकी महिमाका- कोई बाधक नहीं था, वह नाशरहित थी । 'जिनस्तुतिशतक' के निम्नवाक्यम भी ऐसा ही ध्वनित होता है. -- 'वन्दीभूतवतोऽपिनोन्नतिहतिर्नन्तुश्च येषां मुदा । + 'जन्मारण्यशिखी स्तवः' ऐसा 'जिनस्तुतिशतक' में लिखा है । + "येषां नन्तुः (स्तोतुः ) मुदा ( हर्पेगा ) वन्दीभूतवतोऽपि ( मंगलपाठकी भूतवनोऽपि नग्नाचार्यरूपेण भवतोपि मम ) नोन्नतिहति: ( न उन्नतेः माहात्म्यस्य हतिः हनन ) " इति तट्टीकायां वसुनन्दी | * यह पूरा पद्य इस प्रकार हैं-
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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