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२०४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसी ग्रन्थमें एक श्लोक निम्न प्रकारसे भी पाया जाता है
रुचं बिभर्ति ना धीरं नाथातिस्पष्टवेदनः ।
वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पशवेदिनः ।। ६०॥ इसमें, थोड़े ही शब्दों-द्वारा, अर्हद्भक्तिका अच्छा माहात्म्य प्रदर्शित किया है-यह बतलाया है कि 'हे नाथ, जिस प्रकार लोहा स्पर्शमणि (पारस पाषाण) का सेवन (स्पर्शन) करनेसे सोना बन जाता है और उसमें तेज अजाता है उसी प्रकार यह मनुष्य आपकी सेवा करनेमे अति स्पष्ट ( विशद ) ज्ञानी होता हुआ तेजको धारण करता है और उसका वचन भी मारभूत तथा गम्भीर हो जाता है।'
मालूम होता है समन्तभद्र अपनी इस प्रकारकी श्रद्धाके कारण ही अर्हद्भक्ति में सदा लीन रहते थे और यह उनकी इस भकिका ही परिणाम था जो वे इतने अधिक ज्ञानी तथा तेजस्वी हो गये हैं और उनके वचन अद्वितीय तथा अपूर्व माहात्म्यको लिये हुए थे।
समन्तभद्रका भक्तिमार्ग उनके स्तुतिग्रन्थोंके गहरे अध्ययनमे बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है । वाम्नवमें ममन्तभद्र ज्ञानयोग, कर्मयोग प्रोर भक्तियोग तीनोंकी एक मूर्ति बने हए थे.--इनमेंमे किसी एक ही योग वे एकान्न पक्षपाती नही थे-निरी एकान्तता तो उनके पास भी नहीं फटकती थी । वे मवंथा एकान्तवादके मान विरोधी थे और उसे वस्ततत्त्व नही मानते थे। उन्होंने जिन खास कारगोसे अर्हन्तदेवको अपनी प्रतिक योग्य समझा और उन्हें अपनी म्नुनि
जन्मारण्यगिखी स्तवः स्मृतिमि कलेशाम्बुधेनाः पदे भनानां परमो निधी प्रतिकृति: सर्वार्थसिद्धि: पग। वन्दीभतवनोपि नोग्ननिहनिनन्तश्च येषा मुदा
दातारो जयिनो भवन्तु वरदा देवश्वगम्ते सदा । ११५।। * जो एकान्तता नयोंके निरपेक्ष व्यवहारको लिये हुए होती है उमे निरी' अथवा 'मिथ्या एकान्लता कहते है । ममन्नभद्र इस मिथ्य कामनामे हिन थे, इसीसे 'देवागम' में एक प्रापतिका निरसन करते हुए, उन्होंने लिखा है
"न मिध्यकान्ततास्ति नः ।"