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________________ स्वामी समन्तभद्र २०५ का विषय बनाया है उनमें, उनके द्वारा, एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धि भी एक कारण है । अर्हन्तदेवने अपने न्यायवारणोंसे एकान्त दृष्टिका निषेध किया है अथवा उसके प्रतिषेधको सिद्ध किया है और मोहरूपी शत्रुको नष्ट करके वे कैवल्य विभूतिके मम्राट् बने हैं, इसीलिये समन्तभद्र उन्हें लक्ष्य करके कहते हैं कि 'आप मेरी स्तुति योग्य हैं - पात्र है' । यथा एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धि-न्यायेषुभिर्मार्हरिपु निरस्य । श्रमि स्म कैवल्यविभूतिसम्राट तनस्वमर्हन्नसि वे स्तवाहः ||२५|| - स्वयंभू स्तोत्र इससे ममन्तभद्रकी माफ़ तौरपर परीक्षाप्रधानता पाई जाती है और साथ ही यह मालूम होता है कि (१) एकान्नदृष्टिका प्रतिषेध करना और (२) मोहशत्रुका नाश करके कैवल्य विभूतिका सम्राट् होना ये दो उनके जीवन के खाम उद्देश्य थे । समन्तभद्र अपने इन उद्देश्योंको पूरा करनेमें बहुत कुछ सफल हुए है । यद्यपि प्रपने इस जन्ममं केवल्यविभूतिके सम्राट नहीं हो सके परन्तु उन्होंने वैसा होनेके लिये प्राय सम्पूर्ण योग्यताओंका सम्पादन कर लिया है, यह कुछ कम सफलता नहीं है और इसीलिये वे आगामीको उस विभूतिके सम्राट होंगे — नीथंकर होंगे - जैसा कि ऊपर प्रकट किया जा चुका है । केवलज्ञान न होने पर भी, समन्तभद्र उस स्याद्वादविद्याकी अनुपम विभूतिमे विभूषित थे जिसे केवलज्ञानकी तरह सर्वतत्वोकी प्रकाशित करनेवाली लिखा है और जिसमें तथा केवलज्ञानमें साक्षात् प्रमाधानूका ही भेद माना गया है । इसलिये प्रयोजनीय पदार्थोंके सम्बन्धमे आपका ज्ञान बहुत बहा चढ़ा था, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है, और इसका अनुभव ऊपर के कितने ही अवतरली तथा समन्तमद्रकं ग्रन्थोंसे बहुत कुछ हो जाता है। यही वजह है कि श्रीजिनखेवाचार्यने आपके वचनोंको केवली भगवान महावीरके वचनोंके तुल्य प्रकाशमान लिखा है और दूसरे भी कितने ही प्रधान प्रधान ग्राचार्यों तथा विद्वानोंने प्रापकी - स्याद्रादकेवलज्ञानं सर्वतत्त्वप्रकाशनं 1 भेद: साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतम भवेत् ॥ १०५ ॥ - प्रासमीमांसा | यथा
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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