________________ 634 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पाउगबंधणभावं दसणगहणस्स कारणं विविहं / गुणठाणादि-पवएणणमहियारा सत्तरसिमाए॥४॥ इन गाथाभोंके बाद निवासक्षेत्र, भेद, संख्या, विन्यास, परिमाण. चरचार, प्रचरस्वरूप और मायु नामके माठ अधिकारोंका क्रमशः वर्णन दिया है-शेष अधिकारोंके विषय में लिख दिया है कि उनका वर्णन भावनलोकके वर्णनके समान कहना चाहिये ( 'भावरणलोए य्व वत्तव्वं' )-और जिस अधिकारका वर्णन जहाँ समाप्त हुआ है वहाँ उसकी सूचना कर दी है। सूचनाके वे वाक्य इस प्रकार है:___"णिवासखे सम्मत्तं / मेदो सम्मत्तो। संस्खा सम्मत्ता। विरणासं सम्मत्तं / परिमाणं सम्मत्तं / एवं चरगहाणं चारो सम्मत्ता एवं अचरजोइसगणपरूवणा सम्मत्ता। ऊ सम्मत्ता।" प्रवर ज्योतिषगरणको प्ररूपणाविषयक ७वे अधिकारको समाप्तिके बाद ही 'एत्तो चंदाग' से लेकर 'तं चेदं 165.5361' तकका बह सब गद्यांश है, जिमको ऊपर सूचना की गई है। 'मायु' अधिकार के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है / प्रायुका अधिकार उक्त गद्यांगके अनन्तर 'चंदस्स मदमहस्म' इम गाथा प्रारम्भ होता है और अगली गाथापर समाप्त हो जाता है। ऐसी हालतमें उक्त गद्यांश मूल ग्रन्थके साथ सम्बद्ध न होकर साफ तौरमे प्रक्षिप्त जान पड़ना है। उसका मादिका भाग 'एत्तो चंदाग' से लेकर 'तदो ग एल्य सम्पदायविरोधी कायन्चो नि' तक तो धवला-प्रपम खडके स्पर्शनानुयोगहारमें, थोड़ेसे शब्दभेदक साथ प्राय: ज्योंका त्यों पाया जाता है और इसलिये यह उमपरमे उद्धृत हो सकता है परन्तु अन्नका भाग--.देरण विहारोग परुविनगर विलिय भव पडि चत्तारि स्वागिण दादुरण प्रमगोपगमत्थे' के अनन्तरका-धवलाके अगले गद्यांशके साथ कोई मेल नहीं खाना, और इसलिये वह वहाँले उद्धृत न होकर अन्यत्रमे लिया गया है। और यह भी हो सकता है कि यह सारा ही गद्याग घवलासे न लिया जाकर किसी दूसरे ही ग्रन्थपरमे, जो इस समय अपने मामने नहीं है और जिसमें प्रादि अन्तके दोनों भागोंका समावेश होलिया गया हो और तिलोयपन्णत्तीमें किसी के द्वारा अपने उपयोगादिकके लिये हाशियेपर नोट किया गया हो और जो बादको अन्य कापीके समय किसी तरह प्रक्षित हो गया हो /