________________ तिलोयपरणती और यतिवृषभ 66 मुद्रित प्रतिमें पृष्ठ 43 से 50 तक पाया जाता है / धवला (पृ०५१ से 55) में इम कथनका पहला भाग संपहि ( सपदि ) से लेकर 'जगपदरं होदि' तक प्रायः ज्योंका त्यों उपलब्ध है परन्तु शंष भाग, जो पाठ पृथिवियों मादिके घनफलमे सम्बन्ध रखता है, उपलब्ध नहीं है / और इससे वह तिलोयपण्णतीपरसे उद्धत जान पड़ता है-खासकर उस हालतमें जब कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्णत्ती मौजूद थी और उन्होंने अनेक विवादग्रस्त स्थलोंपर उसके वाक्योंको बड़े गौरवके साथ प्रमाणमें उपस्थित किया है तथा उमके कितने ही दूसरे वाक्योंको भी विना नामोल्लेखके उद्धृत किया है और अनुवादित करके भी रक्खा है। ऐसी स्थितिमें तिलोयपम्पत्तोमें पाये जानेवाले गद्यांशोंके विषयमें यह कल्पना करना कि 'वे धवलापरसे उद्धृत किये गये हैं' समुचित नही है भोर न शास्त्रीजीके द्वारा प्रस्तुत किये गये गद्यांशसे इस विषयमें कोई सहायता मिलती है; क्योंकि उस गद्यांशका तिलोयपण्यतिकारके द्वारा उद्धत किया जाना सिद्ध नहीं है-वह वादको किसीके द्वारा प्रक्षिप्त हुमा जान पड़ता है। प्रब में यह बतलाना चाहता है कि यह इतना ही गद्यांश प्रक्षित नहीं है बल्कि इसके पूर्वका "पत्तो चंदाण सपरिवाराणमायणविहारणं वत्तइस्सामो" से लेकर 'एदम्हादो चेव मुत्तादो'तकका अंश.और उत्तरवर्ती'तदो रण एन्थ इटमित्थमेवेति' मे लेकर 'तं चंदं 1655361 / " तकका अंश, जो 'चंदस्स सदसहस्सं' नामकी गाथाके पूर्ववर्ती है, वह मब प्रक्षित है / और इसका प्रबलप्रमाण मूलग्रन्यपरसे ही उपलब्ध होता है / मूलग्रन्थमें मातवें महाधिकारका प्रारम्भ करते हुए पहली गाथामें मंगलाचरण और ज्योतिर्लोकप्रज्ञप्तिके कथनकी प्रतिज्ञा करनेके अनन्तर उत्तरवर्ती तीन गायामोंमें ज्योतिषियोंके निवासक्षेत्र प्रादि 17 महाधिकारोंके नाम दिये है जो इस 'ज्योतिलोकप्राप्ति' नामक महाधिकारके अंग है / वे तीनों गाथाएं इस प्रकार हैं: जोइसिय-णिवासखिदी भेदो संस्खा सहेव विष्णासो। परिमाणं चरचारो अचरसरूवाणि आऊ य // 2 // पाहारो उस्सासो उच्छहो मोहिणाणसत्तोत्री। जीवाणं उपची मरणाई एक्कसमयम्मि // 3 //