SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 636
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 632 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकास पुराणकी प्रादिमें 'कविपरमेश्वर' और उनके 'वागर्थसंग्रह' पुराणका किया है, जो कि उनके महापुराणका मूलाधार रहा है / परन्तु वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें ऐसा कुछ भी नहीं है, और इसलिये उसे उक्त जिनसेनकी कृति बतलाना और उन्हींके द्वारा उक्त गद्यांशका उद्धृत किया जाना प्रतिपादित करना किसी तरह भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। दूसरे भी किसी विद्वान् भाचार्यके साथ, जिन्हें वर्तमान तिलोयपण्णतीका कर्ता बतलाया जाय, उक्त भूलभरे गवांशके उद्धरणकी बात संगत नहीं बैठती; क्योंकि तिलोयपण्णत्तीकी मौलिक रचना इतनी प्रौढ मोर सुव्यवस्थित है कि उसमें मूलकार-द्वारा ऐसे सदोष उद्धरणको कल्पना नहीं की जा सकती। और इसलिये उक्त गद्यांश बादको किसीके द्वारा धवला मादि परमे प्रक्षित किया हुमा जान पड़ता है। पौर भी कुछ गवांश ऐसे हो सकते है जो धवलापरसे प्रक्षित किये गये हों; परन्तु जिन गद्यांशोंकी तरफ शास्त्रीजीने फुटनोटमें संकेत किया है वे तिलोयपणतीमें धवलापरमे उद्धृत किये गये मालूम नहीं होते; बल्कि धवलामें तिलोयपष्णत्तीपरमे उद्धृत हुए जान पड़ते है। क्योंकि तिलोयपष्णत्तीमे गद्यांशोंके पहले जो एक प्रतिशात्मक गाथा पाई जाती है वह इस प्रकार है वादवरुद्धक्खेत्ते विदफलं तह य अटुपुढवाए। सुद्धायासविदीर्ण लवमेत्तं वत्तहस्सामी / / 282 // इसमें वातवलयोंसे अवरुद्ध क्षेत्रों, पाठ पृथिवियों और शुद्ध पाकाशभूमियोंका घनफल बतलानेकी प्रतिज्ञा की गई है और उस घनफलका 'लवमेत ( लवमात्र ) विशेषगके द्वारा बहुत मंक्षेपमें ही कहने की सूचना की गई है। तदनुसार तीनों घनफलोंका क्रमशः गरमें कथन किया गया है और यह कथन तिलोयपम्पत्तिकारको जहाँ विस्तारसे कपन करनेकी इच्छा अथवा भावश्यकता हुई है वहां उन्होंने बंसी सूचना कर दी है। साकि प्रथम अधिकारमें लोकके भाकारादिका संक्षेपसे वर्णन करनेके अनन्तर 'विस्पराबोहत्वं बोन्छ वाणाबियप्पे बि (74)' इस वाक्यके द्वारा विस्तारमषिवाले प्रतिपादोंको लक्ष्य करके उन्होंने विस्तारसे कथनकी प्रतिज्ञा की है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy