________________ तिलोयपएणती और यतिवृषभ निर्णय देमा था-वे वैसे ही उस गद्यांशको तिलोयपण्णत्तीका मूल अंग मान बैठे हैं, और इसीसे गाशमें उल्लिखित तिलोयपण्णत्तीको वर्तमान तिलोयपणतीसे भिन्न दूसरी तिलोयपण्णत्तो कहनेके लिये प्रस्तुत हो गये है। इतना ही नहीं, बल्कि तिलोयपणतीमें जो यत्र तत्र दूसरे गद्यांश पाये जाते हैं उनका अधिकांश भाग भी धवलापरसे उद्धत है, ऐमा मुझाने का संकेत भी कर रहे हैं। परन्तु वस्तुस्थिति ऐमी नहीं है। जान पड़ता है ऐमा कहते और सुझाते हुए शास्त्रीजीको यह प्यान नहीं पाया कि जिन प्राचार्य जिनसेनको वे वर्तमान तिलोयपात्तीका कर्ता बतलाते हैं वे क्या उनको दृष्टिमें इतने असावधान अथवा अयोग्य थे कि जो 'प्रम्हहि पदके स्थानपर 'एमा परूवरणा' पाठका परिवर्तन करके रखते और ऐमा करने में उन साधारण मोटी भलों एवं बुटियोंको भी न ममझ पाते जिन्हें शास्त्रीजी बनला रहे हैं ? और ऐमा करके जिनसेनको अपने गुरु वीरसेनको कृषिका लोप करने की भी क्या जरूरत थी ? वे तो बराबर अपने गुरुका कीर्तन मोर उनकी कृतिके माय उनका नामोल्लेम्वकरने हुए देखे जाते है। चुनांचे बीरसेन जब जयघवलाको प्रधूरा छोड गये और उसके उत्तराधको जिनमेनने पूरा किया तो दे प्रशस्निमें स्पष्ट गब्दों द्वारा यह मूचित करते हैं कि 'गुमने पूर्वाधमे जो भूरि वक्तव्य प्रकट किया था-पागे कयनके योग्य बहुत विषयका ममूचन किया था. उमे (तथा तत्सम्बन्धी नोटम प्रादिको) देखकर यह प्रवक्तव्यरूप उत्तरार्थ पूरा किया गया है: गुरुगणाऽर्थेऽग्रिमे भूरिवनव्य मंप्रकाशिने / तन्निरीक्ष्याऽल्पवक्तव्यः पश्चाधम्तेन पूरितः / / 36 // परन्तु वर्तमान निलोयपानी में नो वीरमेनका कहीं नामोल्लेख भी नहीं है-~-ग्रन्यके मंगलाचरण तकमे भी उनका मरण नहीं किया गया। यदि वीरमेनके मंकेन प्रथवा प्रादेशादिके अनुसार जिनमनके द्वाग वर्तमान तिलोयपरतीका सकलनादि कार्य हुपा होता तो वे अन्यक मादि या अन्नमें किसी न किसी रूपसे उसकी सूचना जरूर करते तथा अपने गुरुका नाम भी उसमें जरूर प्रकट करते / भोर यदि कोई दूसरी तिलोयपात्ती उनकी तिलोयपणत्तीका भाषार होती तो वे अपनी पति और परिगतिके अनुसार उसका और उसके रचयिताका स्मरण भी प्रत्यको मादिमें उसी तरह करते जिस तरह कि महा