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________________ 630 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सामने तिलोयपण्मतीकी चार प्रतियां रहीं है-एक बनारसके स्याद्वादमहाविद्यालयकी,दूसरी देहलीके नया मन्दिरकी,तीसरी मागराके मोतीकटरा-मन्दिर की और चौथी सहारनपुरके ला. प्रद्युम्नकुमारजीके मन्दिरकी। इन प्रतियोंमें, जिनमें बनारसकी प्रति बहुत ही अशुद्ध एवं त्रुटिपूर्ण जान पड़ी, कितनी ही गाथाए ऐसी देखनेको मिलीं जो एक प्रतिमें है तो दूसरीमें नहीं है, इसोसे जो गाथा किसी एक प्रतिमें ही बढी हुई मिली उसका सूचीमें उस प्रतिके साथ सूचन किया गया है / ऐसी भी गाथाएं देखने में प्राई जिनमें किसीका पूवाध एक प्रतिमें है तो उत्तरार्ध नहीं. और उत्तरार्ध है तो पूर्वाध नहीं / मोर ऐसा तो बहुधा देखनेमें पाया कि कितनी ही गाथानोंको बिना नम्बर डाले रनिंगरूप में लिख दिया है, जिससे वे सामान्यावलोकनके प्रवमरपर ग्रंथका गग्रभाग जान पड़ती है। किसी किसी स्थलपर गाथापोंके छूटनेकी साफ सूचना भी की गई है; जैसे कि चीये महाधिकारको रणवरण उदिमहस्सागि' इम गाथा नं०२२१३के मनन्तर प्रागरा और सहारनपुरकी प्रतियों में दम गाथाओंके छूटनेको मूचना की गई है और वह कथन-क्रमको देखते हुए ठीक जान पड़ती है-दूमरी प्रतियोंपरमे उनको पूर्ति नहीं हो मकी / क्या प्राश्चर्य है जो ऐमी छूटी अथवा त्रुटित हुई गाथानों मेंका ही उक्त वाक्य हो / ग्रन्थ-प्रतियों को ऐसी स्थिनिमें दो चार प्रतियों को देख. कर ही अपनी खोजको पर्याप्त खोज बननाना और उसके प्राधारपर उक्त नतीजा निकाल बैठना किसी तरह भी न्यायमंगत नही कहा जा सकता। और इमलिये शास्त्रीजीका यह चतुर्थ प्रमारग भी उनके इष्टको सिद्ध करने के लिये समर्थ नहीं है / (5) अब रहा शास्त्रीजीका अन्तिम प्रमागा, जो प्रथम प्रमाण की तरह उनकी गलत धारणाका मुख्य आधार बना हुपा है / इसमे जिस गधाशकी भोर संकेत किया गया है और जिसे कुछ पगुद्ध भी बतलाया गया है वह क्या स्वयं तिलोतपणातिकारके द्वारा धवनापरमे 'मम्हेहि पदके स्थानपर एसा परवरणा'पाठका परिवर्तन करके उद्धन किया गया है प्रथवाकिसी सरहपर सिलोय. पणती प्रक्षित हमा है ? इसपर शास्त्रीश्रीने गम्भीरता के साथ विचार करना शायद मावश्यक नहीं समझा और इसीसे कोई विचार प्रस्तुत नहीं किया; जब कि इस विषयपर सास तौरपर विचार करनेकी उहरत थी पोर तभी कोई
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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