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________________ hurururviveNauhuri तिलोयपरणती और यतिवृषभ 326 उपस्थित किया है / एक जगह वे किसी व्याख्यानको व्याख्यानाभास बतलाते हुए तिलोयपण्यत्तिसूत्रके कथनको मी प्रमाणमें पेश करते है और फिर लिखते है कि सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान नहीं होता है जो सूत्रविरुद्ध हो उसे व्याख्यानाभास समझना चाहिये-नहीं तो प्रतिप्रसग दोष पाएगा। __ इस तरह यह तीसरा प्रमाण प्रसिद्ध ठहरता है। तिलोपण्णत्तिकारने चकि धवलाके किसी भी पद्यको नहीं अपनाया प्रत: पद्योंको अपनानेके प्राधारपर तिलोयपण्यत्तीको धवलाके बादकी रचना बतलाना युक्तियुक्त नहीं है। (4) चौथे प्रमाणरूपमें शास्त्रीजीका इतना ही कहना है कि 'दुगरगदुगुणी दुवग्गो रिणरंतरो तिरियलोगो' नामका जो वाक्य धवलाकारने द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार ( पृष्ठ 36) में तिनोयपणातीके नामसे उद्धृत किया है वह वर्तमान तिलोक्पण्यातीमें पर्याप्त खोज करने पर भी नहीं मिला. इसलिये यह तिलोयपासी उप तिलोयपण्रपत्तीमे भिन्न है जो धवलाकारके सामने थी ! परन्तु यह मालूम नहीं होसका कि शास्त्रीजीको पर्याप्त खोजका क्या रूप रहा है / क्या उन्होंने भारतवर्ष के विभिन्न स्थानोंपर पाई जानेवाली तिलोयपण्णत्तीकी समस्त प्रतियां पूर्णरूपसे देख गली है ? यदि नहीं देखी है और जहां तक मैं जानता हूं समस्त प्रतियां नहीं देखी है,तब वे अपनी खोजको 'पर्याप्त खोज कसे कहते है? वह तो बहुत कुछ अपर्याप्त है। क्या दो प्रतियोंमें उक्त वाक्यके न मिलनेसे ही यह नतीजा निकाला जा सकता है कि वह वाक्य किसी प्रतिमें नहीं है? नहीं निकाला जा सकता / इसका एक ताजा उदाहरण गोम्मटसार-कर्मकाण्ड (प्रथम अधिकार) के वे प्राकृत गद्यमूत्र है जो गोम्मटसारको पचासों प्रतियोंमें नही पाये जाते; परन्तु मूडबिद्रीकी एक प्राचीन ताडपत्रीय कन्नड प्रतिमें उपलब्ध हो रहे हैं और जिनका उस्लेख मैंने अपने गोम्मटमार-विषयक निबन्धमें 1 किया है / इ.के सिवाय, तिलोयपाति-जैसे बड़े ग्रन्थमें लेखकोंके प्रमादसे दो चार गाथापोंका छूट जाना कोई बड़ी बात नहीं है / पुरातन-बनवाक्य-सूचीके अवसरपर मेरे " वक्खागाभासमिदि दो यदे ? जोइसिय-भागहारमुनादो चदाइच्च दिपमारणपरुषय-तिलोतपण्णतिसुतादो च / ण च मुत्तविरुद्धं वखाणंहोइ, माइपसंगादो।" -धवला 1,2.4, पृष्ठ 36 // 1 यह निबन्ध दूसरे भागमें छपेगा।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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