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________________ 628 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है-चाहे वे किसीके भी द्वारा प्रस्तुत किए गए हों। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि धवलाकारने तिलोयपष्णसीकी उक्त दोनों गापामोंको ही उद्धृत क्यों न कर दिया, उन्हें श्लोकमें अनुवादित करके या उनके अनुवादको रखनेकी क्या जरूरत थी? इसके उसमें मैं सिर्फ इतना ही कह देना चाहता हूँ कि यह सब धवलाकार वीरसेनकी रुचिकी बात है, वे पनेक प्राकृत-वाक्योंको संस्कृतमें पोर संस्कृत-वाक्योंको प्राकृतमें अनुवादित करके रखते हुए भी देखे जाते है। इसी तरह अन्य ग्रंथोंके गयको पदमें मोर पसको गद्यमें परिवर्तित करके अपनी टीकाका अंग बनाते हुए भी पाये जाते है। चुनिचे तिलोयपण्णतीकी भी अनेक गाथानोंको उन्होंने संस्कृत में अनुवादित करके रक्खा है, जैसे कि मंगलकी निरुक्तिपरक माथाएं, जिन्हें शास्त्रीजीने अपने द्वितीय प्रमाणमें, समानताकी तुलना करते हुए उदत किया है। और इसलिये यदि ये उनके द्वारा ही अनुवादित होकर सखे गये है तो इसमें मापत्तिको कोई बात नहीं है / इमे उनकी अपनी शैली और पसन्द मादिको बात समझना चाहिए। अब देखना यह है कि शास्त्रीजीने 'शानं प्रमाणमायादे इत्यादि श्लोकको जो प्रकलंकदेवकी मौलिक कृति' बतलाया है उसके लिये उनके पास गया पाधार है ? कोई भी प्राधार उन्होंने व्यक्त नहीं किया: तब क्या भकलंकके ग्रन्थमें पाया जाना ही प्रकलंकको मौलिक कृति होने का प्रमाण है ? यदि ऐमा है तो राजवातिको पूज्यपादकी समिति के जिन वाक्योंको वानिकादिक म्पमें बिना किमो सूचनाके अपनाया गया है अथवा न्यायविनिश्चियमें समन्तभद्रक 'मूक्ष्मान्तरितदूरा:' जैसे वाक्योंको अपनाया गया है उन मबको भी प्रकल कदेवकी मौलिक हति' कहना होगा। यदि नहीं, तो फिर उक्त इलोकोंको अकलंकदेवकी मोनिक कृति बतलाना निहंतुक व्हरेगा। प्रत्युत इसके, प्रकलकदेव कि यतिवृषभके बाद हुए है अत: यतिवृषभको निलोयपण्णतोका अनुसरण उनके लिये न्यायपात है और उसका समावेश उनके द्वारा पूर्वपमें प्रयुक्त हुए 'क्यागमं पदसे हो जाता है क्योंकि तिलोयपणसी भी एक पागम ग्रंथ है जैसा कि पापा न.८५, 86, ८७में प्रयुक्त हए उसके विशेषणोंसे जाना पाता है, पबलाकारने भी बह जगह उसे 'मूक' लिखा है पौर प्रमाणम्पमें
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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