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________________ तिलोयपएणत्ती और यतिवृषभ के उत्तर में दिए गए हैं कि "एत्य किमट्ठ रणयपरूवरणमिदि" ?-यहाँ नय का प्ररूपण किस लिये किया गया है ?-पोर इस लिए वे धवलाकारके द्वारा निर्मित अथवा उद्धृत भी हो सकते है / उद्धृत होनेकी हालतमें यह प्रश्न पैदा होता है कि वे एक स्थानसे उद्धृत किये गए है या दो स्थानोंसे ? यदि एक स्थानसे उद्धृत किए गए हैं तो वे लघीयस्त्रयसे उद्धृत नहीं किये गए, यह सुनिश्चित है; क्योंकि लधीयस्त्रयमें पहला श्लोक नहीं है। और यदि दो स्थानोंमे उद्धृत किये गये है तो यह बात कुछ बनती हुई मालूम नहीं होती; क्योंकि दूसरा श्लोक अपने पूर्व में ऐसे इलोककी अपेक्षा रखता है जिसमें उद्देशादि किमी भी रूपमें प्रमाग, नय प्रौर निक्षेपका उल्लेख हो-लघीयस्त्रयमें भी 'ज्ञानं प्रमागामास्मादे:' श्लोकके पूर्वमें एक ऐसा इलोक पाया जाता है जिसमें प्रमाग, नय और निक्षेपका उल्लेम्व है और उनके आगमानुसार कथनकी प्रतिज्ञा की गई है, (प्रमाग-नय-निक्षेपानभिधाम्ये यथागन')-और उसके लिये पहला श्लोक संगत जान पड़ता है / अन्यथा, उसके विषयमे यह बतलाना होगा कि वह दूसरे कोनमे अन्यका म्वतन्त्र वाक्य है। दोनों गाथामोंभोर श्लोकोंकी तुलना करनेम तो मा मालूम होता है कि दोनों श्लोक उक्त गाथानों परमे अनुवाद मे निर्मित हरा है / दूसरी गाथामे प्रमाण, नय पोर निक्षेपका उसी क्रममे लक्षण-निर्देश किया गया है, जिम क्रममे उनका उल्लेख प्रथम गाथामें हुपा है। परन्तु अनुवादके छन्द (श्लोक) में शायद वह बात नहीं बन सकी इसी मे उममें प्रमागाके बाद निक्षेपका और फिर नयका लक्षण दिया गया है। इसमें रिलीयपनीको उक्त गाथामों की मौलिकताका पता चलता है पौरांगा जान पड़ता है कि उन्हीं परमे उक्त श्लोक अनुवादरूपमें निमित हुए है ---भले ही यह अनुवाद स्वयं घबलाकारके द्वारा निर्मित हुपा हो या उनमे पहले किमी दूमके द्वारा। यदि धवलाकारको प्रथम श्लोक कहींसे स्वतन्त्ररूपमें उपलब्ध होता तो वे प्रदनके उत्तरमें उमीको उधत करदेना काफी समझते-दूसरे लघीयस्त्रय-जम गंधमे दूसरे दलोकको उदधृत करके साथमें जोड़ने की जरूरत नही थी क्योंकि प्रश्नका उत्तर उम एक ही श्लोकसे हो जाता है / दूमरे हलोकका साथमें होना इस बातको सूचित करता है कि एक साथ पाई जानेवाली दोनों गाथामोके अनुवादरूपमें ये श्लोक प्रस्तुत किये गये
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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