________________ 626 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रकृत पदोंको उद्धृत किया जाता है, जिससे पाठक उनके विषयके विचारको भले प्रकार हृदयङ्गम कर सकें, जो ण पमाणणयहिं णिक्खेवेणं णिरक्वदे. अत्थं / तस्साऽजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च (व) पडिहादि / / 2 / / णाणं होदि पमाणं णा वि णादुम्स हिंदयभावत्यो / णिक्खेवो वि उवाओं जुत्तीए अस्थपडिगहणं // 8 // -तिलोयपमा ती प्रमाण-नय-निदंपैोऽर्थो नाऽभिसमीक्ष्यते / युक्त चाऽयुक्तयद् भाति तस्याऽयुक्त च युक्तयन् // 10 // ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरूपायो न्यास उच्यते / नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः // 11 // __-धवला 1, 1, 10 16, 17, तियोयपण्णी की पहली गाथामें यह बतलाया है कि 'जो प्रमाण, नय पौर निक्षेपके द्वारा प्रयंका निरीक्षणा नहीं करना है उसको प्रयुक्त (पदार्थ) युक्तकी तरह और यक्त (पदार्थ) प्रयुक्त की नरह प्रतिभामित होता है।' और दूसरी गाधाम प्रमाग, नय और निक्षेपका उद्देशानुमार क्रमश: लक्षण दिया है और अन्त में बतलाया है कि यह मब युनिमे अर्थका परिग्रहा है। प्रतः ये दोनों गाथाएँ परसर मगत है / और इन्हें ग्रन्थमे अलग कर देने पर अगली 'इय रसायं प्रवहारिय पाइरियपरम्पगगय मगामा' (इस प्रकार प्राचार्य परम्परामे चले प्राये हुए न्यायको हृदयमे धारण करके ) नाम की गाथा 6 असंगत तथा खटकनवाली हो जाती है / इमलिये ये तीनों ही माथाए तिलायाम्पत्तीकी अंगभूत है। धवला (संतपस्वरगा) में उक्त दोमें इलोकोको देते हए उन्हें उक्त च' नहीं लिखा और न किमी म्वास ग्रंथके वाक्य ही प्रयट किया है। वे इसप्रश्न इस गापाका नम्बर 84 है। शास्त्रीजीने जो इसका न० 88 भूचित किया है वह किसी . गलतीका परिणाम जान पड़ता है।