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________________ तिलोयपएणती और यतिवृषभ 625 विधानादिका श्रेय धवलाको प्राप्त नहीं है। और इसलिये तिलोयपण्यत्तिकारने यदि इस विषयमें पुरातन प्राचार्योकी कृतियों अनुसरण किया है तो वह न्याय ही है, परन्तु उतने मात्रसे उसे धवलाका अनुसरण नहीं कहा जा सकता, धवलाका अनुसरण कहने के लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि धवला तिलोयरणतिस पूर्वको कृति है, और यह सिद्ध नहीं है। प्रत्युत इसके, यह स्वयं धवलाके उल्लेखोंसे ही सिद्ध है कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्णति थी, जिसके विषयमें दूसरी तिलोयपत्ति होने की तो कल्पना की जाती है परन्तु यह नहीं कहा जाता और न कहा जा सकता है कि उसमें मंगलादिक छह अधिकारोंका वह मब वर्णन नहीं था जो वर्तमान तिलोयपण्ण तिमें पाया जाता है तब धवलाकारकं द्वारा तिलोयपण्णात्तिके अनुसरण को बात ही अधिक संभव मोर युक्तियुक्त जान पड़नी है। ऐसी स्थितिमें शास्त्रीजीका यह दूसरा प्रमाण वस्तुन: कोई प्रमाण ही नहीं है पोर न स्वतन्त्र युक्ति के रूप में उसका कोई मूल्य जान पड़ता है। (3) तीसरी प्रमागा अथवा युक्तिवाद प्रस्तुत करते हुए शास्त्रीजीने जो कुछ कहा है उसे पतते समय ऐमा मालूम होता है कि 'तिलोयपण्यत्तिमें धवला. पर मे बन दो संस्कृत श्लोकोंको कुछ परिवर्तनके माथ अपना लिया गया है जिन्हें धवलामें कहींसे उद्घत किया गया था और जिनमेंसे एक श्लोक प्रकलंकदेवके लषीवस्त्रयका 'ज्ञानं प्रमारणमात्मादे.' नाम का है। परन्तु दोनों गन्थोंको जब खोलकर देखने है तो मालूम होता है कि तिलोयपण्यत्तिकारने धवलोदघृत उन दोनों मंस्कृत श्लोकोंको अपने ग्रंथका अंग नहीं बनाया-वहाँ प्रकरण के माय कोई संस्कृतश्लोक है ही नहीं, दो गाथाएं हैं जो मौलिक रूपमेंस्थित है पौर प्रकरणके साथ संगत है। इसी तरह लघीयस्त्रयवाला पर धवला. में उसी पसे उदत नहीं जिस रूपमें कि वह लघीयस्त्रयमें पाया जाता हैउसका प्रथम चरण 'झानं प्रमाणमात्मादे: के स्थान पर 'मानं प्रमाण मिस्याहुः' के रूपमे उपलम्ब है। मोर दूसरे चरणमें 'इष्यते' को जगह उच्यते' कियापद है / ऐसी हालतमें शास्त्रीजीका यह कहना कि " 'मामं प्रमारणमात्मादे:' - इत्यादि श्लोक मद्रासंकदेवकी मौलिक कृति है तिलोवपण्यत्तिकारनं इसे भो नहीं छोड़ा" कुछ संगत मामूम महीं होता / प्रस्तु; यहां दोनों अन्योंके दोनों
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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