________________ 624 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश जान पड़ता है पहले भ्रान्त प्रमाण परसे बनी हुई ग़लत धारणाके प्राधारपर हो यह सब कुछ बिना हेतुके ही कह दिया गया हैं !! मन्यथा शास्त्रीजी कमसे कम एक प्रमाण तो ऐसा उपस्थित करते जिससे यह जाना जाता कि धवलाका प्रमुक उद्धरण अमुक ग्रन्थके नामोल्लेख-पूर्वक मन्यत्रसे उद्धृत किया गया है और उसे तिलोयपण्णत्तिका अंग बना लिया गया है। ऐसे किसी प्रमाणके प्रभावमें प्रस्तुत प्रमाण परसे अभीष्टको कोई सिटि नहीं हो सकती और इसलिये वह निरर्थक ठहरता है। क्योंकि वाक्योंकी शान्दिक या माथिक समानता परसे तो यह भी कहा जा सकता है कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्यत्ति रही है, बल्कि ऐसा कहना, तिलोयात्तिके व्यवस्थित मौलिक कथन और धवलाकारके कथनकी व्याख्या-शैलीको देखते हुए. अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। रही यह बात कि तिलोयपण तिकी ८५वी गाथामें विविध-ग्रंथ-युक्तियोके द्वारा मंगलादिक छह अधिकारोंके व्याख्यामका उल्लेख है तो उसमें यह कहां फलित होता है कि उन विविध ग्रन्थोंमें धवाला भी शामिल है अथवा धवलापरमे ही इन अधिकारोंका संग्रह किया गया है?-खामकर ऐसी हालतमे जबकि धवलाकार स्वयं 'मंगलग्गिमित्त हेऊ' नामकी एक भिन्न गाथाको कहीम उद्धृत करके यह बतला रहे है कि 'इम गाथामें मगनादिक छह बातोका व्याख्यान करने के पश्चात् प्राचार्य के लिये शास्त्रका ( मूलमयका ) व्याख्यान करनेकी जो बात कही गई है वह प्राचार्य-परम्परामे चला पाया न्याय है, उमे हृदय में धारण करके और पूर्वाचार्यों के प्राचार (व्यवहार)का अनुसरण करना रत्नत्रयका हेतु है ऐमा समझकर, पुष्पदन्त प्राचार्य मगलारिक छह अधिकारीका सकारण प्ररूपण करनेके लिये मंगलमूत्र कहते है / क्योंकि इससे स्पष्ट है. कि मंगलादिक छह अधिकारोंक कथनकी परिपाटी बहुत प्राचीन है --उनके + "मंगलपदिछक्क वक्खागि य विविहगंपत्तीहि / ' * 'इदि रणायमाइरिय-परम्परागयं मरोणावहरिय पुवाइरियायागरगुसरण-तिरयग हे उनि पुप्फदंताइरियो मंगलादीणं छपण सकारणाग पावगट्ठ सुत्तमाह।"