________________ तिलोयपण्णत्तो पोर यतिवृषभ 623 नन्दीके शिष्य कीर्तिमन्दीके और कीतिनन्दीके शिप्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। पौर इससे चन्द्रनन्दीका समय शक संवत् 638 से कुछ पहलेका ही जान पड़ता है। यदि यह कल्पना ठीक हो तो श्रीविजय का समय शक सवत् 658 के लगभग प्रारम्भ होता है और तब जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका समय शक सं. 670 अर्थात वि० सं० 805 के पास-पासका होना चाहिए / ऐसी स्थितिमें जम्बूद्वीपप्रजातिकी रचना भी धवलासे पहलेको-कोई 68 वर्ष पूर्वकी-ठहरती है। ऐसी हालत में शास्त्रीजीका यह लिखना कि "वीरसेनस्वामीके सामने राजवार्तिक मादिमें बतलाए गये भाकारके विरुद्ध लोकके प्राकारको सिद्ध करनेके लिये केवल उपयुक्त दो गाथाए ही थी / इन्हीके प्राधारपर वे लोकके प्राकार. को भिन्न प्रकारसे सिद्ध कर मकै तथा यह भी कहनेमें समर्थ हए ............... इत्यादि' न्यायसंगत मालूम नहीं होता / और न इस प्राधारपर तिलोयपण्यत्तिको वीरसेनसे बादकी बनी हुई अथवा उनके मतका अनुसरण करने वाली बतलाना ही न्यायसंसगत अथवा युक्ति-युक्त कहा जा सकता है / वीरमेनके सामने तो सम विषयके न मालूम कितने ग्रंथ पे जिनके प्राधारपर उन्होंने अपने व्याख्यानादिको उमी तरह सृष्टि की है जिस तरह कि मकला पोर विद्यानन्दादिने अपने गजवातिक, श्लोकवातिकादि ग्रंथों में प्रनंक विषयोका वर्णन और विवेचन बहनमें ग्रंथों के नामल्नेखक विना भी किया है। (2) द्वितीय प्रमाणको उपस्थित करते हुए शास्त्री जीने यह बतलाया है कि तिलोयपशालिके प्रथम अधिकारकी ७वी गाथासे लेकर 87 वी गाथा तक 81 गाथानों में मंगलादि छह अधिकारोंका जो वर्णन है वह पूराका पूरा वरगंन संतपस्वरणाकी पवला टीकामे भाए हुए वर्णनमे मिलना-जुलता है।' मोर माथ ही इस साहश्य परसे यह भी फलित करके बनलाया है कि "एक पंथ लिखते समय दूसरा ग्रंथ प्रवश्य सामने रहा है।" परन्तु धवलाकारके मामने निलोयपत्ति नहीं रही, घवला में उन सह अधिकारोंका वर्णन करते हुए जो गाथाएँ या श्लोक उद्धृत किये गये है वे सब भन्यत्रसे किये गये है तिलोयपणपत्तिसे नहीं, इतना ही नहीं बल्कि धवलामें जो गाथाए या श्लोक अन्यत्रो उदभूत है उन्हें भी सिलोयपातिके मूल में शामिल कर लिया है इस विको सिद्ध करनेके लिये कोई भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया।