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________________ 622 , जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उत्तर-दक्षिणके राजुपोंका उक्त प्रमाण बहुत ही स्पष्ट शब्दों में दिया हमा है पौर लोकको चौदह राजु ऊंचा तथा सात राजुके धनमै ( 343 राजु) भी बतलाया है। ___ इन प्रमाणोंके सिवाय, जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिमें दो गाथाएं निम्न प्रकारले पाई जाती है पनिछम-पुन्वादिसाए विक्वंभो होह तम्स लोगम्स / सत्तेग-पंच-एया मूलादो होति रज्जूणि // 4.16 / / दक्खिण-उत्तरदो पुण विक्खंभो हाडासत रज्जूणि / चदुसु वि दिसासु भागे उदसरज्जूणि उत्तुंग।।। 4.17 / / इनमें लोककी पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण चौडाई-मोटाई तथा ऊँचाईका परिमारण स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाको गाथानोंके अनुरूप ही दिया है / जम्बू. द्वीपप्रज्ञप्ति एक प्राचीन ग्रंय है और उन पद्यनन्दी प्राचार्य की कृति है जो बलनन्दिके शिष्य तथा वीरनन्दीके शिष्य थे और प्रागमोपदेशक महासत्व श्रीविजय भी जिनके गुरु थे / श्रीविजयगुरुम सुपरिशुद्ध पागमको मुनकर तथा जिनवचनविनिर्गन अमृभूत पदको धारण करके उन्हीके माहारम्य अथवा प्रमादम उन्होंने यह ग्रंथ उन श्रीनन्दी मुनिके निमिन रचा है जो माघनन्दी मुनीक गिप्य अथवा प्रशिष्य (मकन बन्द | मिप्यके शिष्य) ये ऐमा प्रन्यकी प्रशस्तिपग्मे जाना जाता है। बहन सम्भव है कि ये श्रीविजय वे ही हों जिनका सूमस नाम 'अपराजितमूरि' था. जिन्होंने श्रीननी मणिको प्रेरणाको पाकर भगवनीपाराधनापर "विजयादया' नामकी टीका लिखी है और जो बललेवमूरिके शिष्य तया चन्द्रनन्दी के प्रशिष्य थे। प्रोर यह भी सम्भव है कि उनके प्रगुर बन्दनन्दी वे ही हों जिनको एक शिष्यपरम्पराका उल्वेख श्रीपुरुषके दानपत्र अथवा 'भागमंगल ताम्रपत्र में पाया जाना है, जो श्रीपुरके जिनालयके लिये बक स० 668 (वि० सं० 833) में लिखा गया है और जिसमें चन्द्रनन्दीकं एक शिष्य कुमार सकलचन्द्र-शिष्यके नामोल्लेखवाली गाथा भामेरकी वि० सं० 1518 की प्राचीन प्रतिमें नहीं है, पदकी कुछ प्रतियों में है। इसीसे श्रीनन्दीके माषनन्दीक प्रशिष्य होनेकी कल्पना की गई है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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