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________________ तिलोयपएणत्ती और यतिवृषभ अपने कथनके साथ संगति बिठलाई है। और इस लिये अपने द्वारा सविशेषरूप. से मान्य ग्रन्थोंके प्रमाणोंको उपस्थित करनेका वहाँ प्रसंग ही नहीं था। उनके माधारपर तो वे अपना सारा विवेचन अथवा व्याख्यान लिख ही रहे हैं। पब में निलोयपण्णत्तीसे भिन्न दो ऐसे प्राचीन प्रमाणोंको भी पेश कर देना चाहता हूँ जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वीरसेनको धवला कृतिसे पूर्व (अथवा शक मं० 738 से पहले ) छह द्रव्योंका प्राधारभून लोक, जो अध: ऊर्ध्व तथा मध्यभागमें क्रमश: वेत्रासन, मृदंग तथा झल्लरीके सदृश प्राकृतिको लिये हुए है अथवा डेढ मृदंग-जमे प्राकारवाला है उसे चौकोर (चतुरस्रक) माना है। उसके मूल, मध्य, ब्रह्मान्त और लोकान्त में जो क्रमश: सात, एक, पांच, तथा एक राजुका विस्तार बतलाया गया है वह पूर्व मोर पश्चिम दिशाकी अपेमासे है, दक्षिण तथा उत्तर दिशाकी अपेक्षामे सर्वत्र सात राजुका प्रमाण माना गया है और इमी लोकको मात राजुके धनप्रमाण निर्दिष्ट किया है:(अ) कालः पश्चास्तिकायाश्च स प्रपचा इहाऽखिलाः / लोक्यंते यन तेनाऽयं लोक इत्यभिलप्यते / / 4-5 // वेत्रासन-मृदंगोरु-मल्लरा-सदशाऽऽकतिः / अधश्चाय च तियक च यथायोगमिति विधा / / 4.6 // मुजोधमधाभागे नभ्याचे मुरजी यथा। प्राकारतम्य लोसम्य किन्वेष चतुगलकः / / 1.7 / / ये हरिवंशपुराण के वाक्य है. जो गक मं० 705 (वि० म०८४० ) में बनकर समाप्त हुपा है। इसमें उक्त प्राकृतियाले यह द्रव्योके प्राधारभूत लोकको चौकोर (चतुरमक) बतलाया है-गोल नही, जिसे लम्बा चौकोर समझना चाहिये। (भा) मत्तेमकुपंचाक्का मृले माझे तहेव वंभत / लायते रज्जुनी पुश्वावरदो य विस्थारो।। 518 // दक्षिण-उत्तरद। पुण सत्त वि रज वेदि मध्यस्थ / उठ्ढा च उदस रज्जू सत्त विजू घण। लाया॥११॥ ये स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाएँ है, जो एक बात प्राचीन ग्रन्थ है और बीरसेनसे कई शताब्दी पहलेका बना हुआ है। इनमें लोकके पूर्व-पश्चिम भोर
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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