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________________ 620 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश तो वीरसेनने साफ उत्तर दे दिया है कि वहां उसकी विधि नहीं तो निषेध भी नहीं है-विधि और निषेध दोनोंके प्रभावसे विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं रहता। इस विवक्षित 'करणानुयोगसूत्र'का अर्थ करणानुयोग-विषयके समस्त ग्रन्थ तथा प्रकरण ममझ लेना युक्तियुक्त नहीं है / वह 'लोकानुयोग'की तरह, जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि और लोकविभागमें भी पाया जाता है (r), एक जुदा ही ग्रन्थ होना चाहिये / ऐसी स्थितिमें वीरसेनके सामने लोकके स्वरूप सम्बन्ध में अपने मान्य ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण मौजूद होते हुए भी उन्हें उपस्थित (पेश) करने की ज़रूरत नहीं थी पोर न किसीके लिये यह लाजिमी है कि जितने प्रमाण उसके पास हों वह उन सबको ही उपस्थित करे-वह जिन्हें प्रसंगानुसार उपयुक्त प्रौर जरूरी समझता है उन्हींको उपस्थित करता है और एक ही भाशयके यदि अनेक प्रमाण हों तो उनमें चाहे जिसको अथवा अधिक प्राचीनको उपस्थित कर देना काफी होता है / उदारणके लिये 'मुहतलसमास पद' नामकी गाथासे मिलती जुलती और उसी प्राशयकी एक गाथा तिलोयपणणसीमें निम्न प्रकार पाई जाती है मुहभूमिसमासद्धिय गुणिदं तुगेन तह य धेण / घणगणिदं णादव्वं वेत्तासण-सण्णिा खेते॥१६|| इस गाथाको उपस्थित न करके यदि वीरमेनने 'महतलसमासमट' नामकी उक्त गाथाको उपस्थित किया जो शंकाकारके मान्य मूत्रमन्यकी थी तो उन्होंने वह प्रसंगानुमार उचित ही किया, और उसपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि वीरसेनके सामने तिलोयपण्णात्तिकी यह गाथा नहीं थी, होती तो उसे जरूर पेश करते / क्योंकि शंकाकार मूलसूत्रोंके व्याख्यानादि-रूप में स्वतंत्ररूपसे प्रस्तुत किये गए तिलोयपण्णती-जैसे अन्योंको माननेवाला मालूम नहीं होता-माननेवाला होता तो वैसी शंका ही न करता-, वह तो कुछ प्राचीन मूलमूत्रोका पभराती जान पड़ता है और उन्हींपरसे सब कुछ फलित करना चाहता है। उसे वीरसेनने मूलसूत्रोंकी कुछ दृष्टि बतलाई है और उसके द्वारा पेश की हुई सूत्रमाणामोंकी * "इतरो विशेषो लोकानुयोगत: वेदितव्यः" ( ३-२)-सर्वार्थसिद्धि "बिन्दुमात्रमिदं शेष ग्राह्य लोकानुयोगत:" (7-68) -लोकविभाग
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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