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________________ विनोयपण्णी और यतिवृषभ माधार है और जिसमें राजवातिकका कोई उल्लेख भी नहीं है / इसमें कहीं भी न तो यह निविष्ट है और न इमपरसे फलित ही होता है कि वीरसेनस्वामी लोकके उत्तर-दक्षिणमें सर्वत्र सात राजु मोटाईवाली मान्यताके संस्थापक हैंउनसे पहले दूसरा कोई भी प्राचार्य इस मान्यताको माननेवाला नहीं था अथवा नहीं हुप्रा है / प्रत्युन इसके यह साफ़ जाना जाता है कि वीरसेनने कुछ लोगोंकी गलतीका समाधानमात्र किया है-स्वयं कोई नई स्थापना नहीं की। इसी तरह यह भी फलित नहीं होता कि वीरमेन के सामने 'मुहतलसमासप्रद' और 'मून मज्झरण गुगणं' नामकी दो गाथानोंके सिवायदूसरा कोई भी प्रमाण उक्त मान्यताको स्पष्ट करने के लिए नहीं था। क्योंकि प्रकरणको देखते हुए मरणाइरियपरूविदमुदिंगायारलोगस्म पदमें प्रयुक्त हुए 'अण्णाइरिय'(पन्याचार्य)गन्दमे उन दूसरे प्राचार्यों का ही ग्रहण किया जा सकता है जिनके मतका शंकाकार अनुयायी था अथवा जिनके उपदेशको पाकर शकाकार उक्त शंका करनेके लिये प्रस्तुत हुमा था, न कि उन प्राचार्यों का जिनके अनुयायी स्वय वीरसेन थे और जिनके अनुमार कयन करने की अपनी प्रवृत्तिका वीरसेनने जगह जगह उल्लेख किया है। इम क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके मंगलाचरणमें भी वे खेतमन जहोवएस पयामेमो' इम वाक्यके द्वारा यथोपदेश (पूर्वाचार्योंके उपदेशानुमार) क्षेत्रमूत्रको प्रकाशित करने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं। दूसरे जिन दो गाथानों को वीरमेनने उपस्थित किया है उनमे जब उक्त मान्यता फलिन एवं स्पष्ट होती है तब वीरसेनको उक्त मान्यताका मंस्थापक कसे कहा जा सकता है ?-बहनो उक्त गाथायोंसे भी पहलेको स्पष्ट पानी जाती है। और इससे निलीयपणतीको वीरसेनसे बादकी बनी हुई कहने में यो प्रधान कारण था वह स्थिर नहीं रहता। तीसरे, वीरमेनने 'मुहतलसमासप' मादि उक्त दोनों गाथाएं शंकाकरको लक्ष्य करके ही प्रस्तुत की है और वे सम्भवत: उसी अन्य अथवा शंशाकारके द्वारा मान्य ग्रन्थकी जान पड़ती है जिसपरसे तीन मूरगायाए शंकाकारने उपस्थित की थी; इसीसे वीरसेनने उन्हें लोकका दूसरा प्राकार मानने पर निरर्थक बतलाया है। और इस तरह शंकाकारके द्वारा मान्य प्रन्यके वाक्यों परसे ही उमे निरुतर कर दिया है। और अन्तर्षे जा उसने 'करणानुयोगसूत्र' के विरोधकी कुछ बात उठाई है अर्थात ऐसा संकेत किया है कि उस प्रथमें सात राजुकी मोटाईकी कोई स्पष्ट विधि नहीं है
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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