________________ 618 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है कि लोक संपूर्ण माकाशके मध्यभागमें स्थित है', चौदह राजु मायामवाला है दोनों दिशामोंके अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशाके मूल, अर्घभाग, त्रिचतु. भर्भाग मोर चरम भागमें क्रमसे सात, एक, पांच पोर एक राजु विस्तारवाला है, तथा सर्वत्र सात राजु मोटा है, वृद्धि और हानिके द्वारा उसके दोनों प्रान्सभाग स्थित है, चौदह राजु लम्बी एकराजुके वर्गप्रमाण मुखवाली लोकनाली उसके गर्भ में है, ऐसा यह पिण्डरूप किया गया लोक सात राजुके धन प्रमारण मर्थात् 74747%D343 राजु होता है। यदि लोकको ऐसा नहीं माना जाता है तो प्रतर-समुद्घातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ जो 'मुहतलसमास प्रद' मोर 'मूलं मज्भेण गुरण' नामकी दो गाथाएं कही गई हैं वे निरर्थक हो जायेंगी; क्योंकि उनमें कहा गया घनफल लोकको अन्य प्रकारमे माननेपर संभव नहीं है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'इस (उपर्युक प्राकार वाले) नोकका शंकाकारके द्वारा प्रस्तुत की गई प्रथम गाथा ( 'हेट्ठा माझे उरि वेत्तामनझल्लरीमुइंगरिणमो') के साथ विरोध नहीं है, क्योंकि एक दिशामें लोक वेत्रासन और मृदंगके प्राकार दिखाई देता है, और ऐमा नहीं कि उसमें झल्लरीका प्राकार न हो; क्योंकि मध्यलोक में स्वयंभूरमग ममुद्रसे परिक्षिप्त तथा चारों पोरमे असंख्यात योजन विस्तारवाला प्रोध एक लाख योजन मोटाई वाला यह मध्यवर्ती देश चन्द्रमण्डलकी तरह झालरीके ममान दिखाई देता है / और दृष्टान्त पर्वथा दान्तिके ममान होता भी नहीं, अन्यथा दोनोक ही प्रभावका प्रसंग पाजायगा। ऐमा भी नहीं कि (द्वितीय मूत्र-गाथामें बतलाया हुपा) तालवृक्षके समान माकार इममें प्रसंभव हो, क्योंकि एक दिशा से देखने पर तालवृक्षके समान प्राकार दिखाई देता है। पौर तीमरी गाथा ('लोयस्स विक्खंभो चउप्पयारो') के साथ भी विरोध नहीं है। क्योंकि यहाँ पर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों दिशानों में गायोक्त चारों ही प्रकार के विष्कम्भ दिखाई देते है। सात राजुकी मोटाई करणानुयोग मूरके विरुद्ध नहीं है; क्योंकि उक्त सूत्रमें उसकी यदि विधि नहीं है तो प्रतिष भी नहीं है -विधि और प्रतिषेध दोनोंका प्रभाव है। और इसलिये लोकको उपयुक्त प्रकारका ही ग्रहण करना चाहिये / ' यह सब धवलाका वह कथन है जो शास्त्रीजीके प्रथम प्रमाणका भून