________________ तिलोयपएणती और यतिवृषभ इस गांशमें ज्योतिष-देवोंके जिस भागहार सूत्रका उल्लेख है वह वर्तमान तिलोयपष्णत्तीके इस महाधिकारमें पाया जाता है। उसपरसे फलितार्थ होनेवाले व्याख्यानादिकी चर्चाको किसीने यहाँपर अपनाया है, ऐसा जान पड़ता है। इसके सिवय, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि जिस वर्तमान तिलोयपणतीको शास्त्रीजी मूलानुमार पाठहजार श्लोकपरिमारण बतलाते है वह उपलब्ध प्रतियोंपरसे उतने ही श्लोकपरिमारण मालूम नहीं होती, बल्कि उमका परिमारग एक हजार श्लोक-जितना बढ़ा हुमा है और उससे यह साफ जाना जाता है, कि मूलमें उतना अंश बादको प्रक्षिप्त हुमा है। और इस लिए उक्त गद्यांशको, जो अपनी स्थितिपरसे प्रक्षिप्त होनेका गण मन्देह उत्पन्न कर रहा है और जो ऊपरके विवेचनपरसे मूलकारकी कृति मालूम नहीं होता, प्रक्षिप्त कहना कुछ भी अनुचित नहीं है। ऐसे ही प्रक्षिप्त अंशोंमे, जिनम कितने ही 'पाठान्तर' वाले अंश भी शामिल जान पड़ते हैं, ग्रन्थ के परिमाण में वृद्धि हो रही है। और यह निविवाद है कि कुछ प्रक्षिप्त अंशोंके कारण किमी ग्रंथको दूसरा ग्रंय नहीं कहा जा सकता। प्रतः शास्त्रीजीने उक्त गद्यांशमें तिलोयपानीका नामोल्लेख देख कर जो यह कल्पना करली है कि वर्तमान तिलोपणती उम तिलोयपारीसे भिन्न है जो धवलाकारके मामने थी' वह ठीक नही है / इस तरह गास्त्रीजीके पांचों प्रमाणोंमे कोई भी प्रमाग यह सिद्ध करने के लिए ममर्थन नहीं है कि वर्तमान तिलोयपणणतो प्राचार्य वोरमेनके बादकी बनी हुई है अथवा उम तिलोयपण्यानोम भिन्न है जिसका वीरसेन अपनी धवला टीकामें उल्लेख कर रहे है / और तब यह कपना करना तो अनिसाहसकी बात है कि 'बीरसेनके शिष्य जिनमेन इसके रचयिता हैं. जिनकी स्वतन्त्र रचना-पद्धतिके माथ इसका कोई मेल भी नहीं खाता / प्रत्युत इसके, ऊपरके संपूर्ण विवेचन एवं ऊहापोहपरमे स्पष्ट है कि 'यह गिलोयपण्णत्ती यतिवृषभाचार्यकी कृति है, धवला मे कई शताब्दी पूर्वको रचना है और वही चीज है जिसका वीरसेनस्वामी प्रपनी धवलामें उद्धरण, अनुवाद तथा प्राशयग्रहणादिके रूपमें स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग करते रहे है। शास्त्रीजीने प्रथको मन्तिम मंगल गाया 'बटूरण' पदको ठोक मानकर उसके मागे जो 'भरिसवसह' पाठ