________________ 636 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश की कल्पना की है और उसके द्वारा यह सुझानेका यत्न किया है कि इस तिलोयपण्णत्तीसे पहले यतिवषमका तिलोयपण्णत्ती नामका कोई पार्षग्रन्थ था जिसे देखकर यह तिलोयपष्पत्ती रची गई है और उसकी सूचना इस गाथामें 'दटू ण परिसवसह' वाक्यके द्वारा की गई है, वह भी युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि इस पाठ और उसके प्रकृत प्रर्थकी सगति गाथाके साथ नहीं बैठती, जिसका स्पष्टीकरण इस निबन्धके प्रारम्भमें किया जा चुका है। और इसलिये शास्त्रीजीका यह लिखना कि "इस तिलोयपण्णत्तोका संकलन सक संवत् 738 (वि० सं०८७३ ) से पहलेका किसी भी हालत में नहीं है" तपा "इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालत में नहीं हो सकते" उनके प्रतिसाहसका घोतक है / वह पूर्णत: बाधित है और उसे किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।