________________ 320 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 'चूकि जैनशाकटायनने जैनेंद्र व्याकरणके बहुतसे सूत्रोंकी नक़ल ( कॉपी) की है इसलिये यह सूत्र यदि जैनद्र व्याकरणका होता तो शाकटायन इसकी भी नकल जरूर करता , परन्तु यह अनुमाग ठीक नहीं है। क्योंकि एक तो 'बहत' में 'सबका समावेश नहीं किया जासकता है। यदि ऐमा समावेश माना जायगा तो पूज्यपादके 'जनेंद्र में पाणिनीय व्याकरणके बहुनमे सूत्रोंका अनुसरण होनेम मौर साथ ही पाणिनि-द्वारा उल्लेविन शाकटायनादि विद्वानोंका नामोल्लेख न होनेसे पाणिनीय व्याकरणके उन नामोल्लेखवाले मूत्रोको भी प्रक्षित कहना होगा, जो इष्ट नहीं होसकता। दूसरे, जैन गाकटायननं मर्वथा 'जनेद्रका अनुमरण किया है, ऐमा न तो पाठकजी द्वारा उद्धत मूत्रोंपर और न दूसरे मूत्रोंपरसे ही प्रतीत होता है। प्रत्युत इसके. कितने ही अंगों में वह स्वतन्त्र रहा है और कितने ही अंगों में उसने दूसरों के सूत्रों, जिनमें पागनिके मत्र भी शामिल है, अनुमग्गा किया है / वुद पाठकजीने अपने प्रकृन लेन में शाकटायनके 'जरायाङसिन्दम्याचि (1.037) मूत्रक विषयमें लिखा है कि वह बिल्कुल पाणिनिके. "जराया जरमन्यतम्याम' ( 2.101) मत्रके प्राधार पर रचा गया है ( is tntircls xised on) / माथ ही, यह भी लिखा है कि जन शाकटयन एम गरम 'का नामोल्लम्ब होने में ही कुछ विद्वानोका यह विश्वास करनेमें गलती है कि 'इन्द्र' नामका भी वास्तव में काई वय्याारणी हुग्रा है + ! मी हालतम यदि उसने जनेद्रके कुछ सूत्रोंको नही लिया अथवा उनका या उनके नामवाले पनका काम 'वा' शब्दक प्रयोग से निकाल लिया और कुछ एंगे मूत्रामे स्वय पूर्वाचार्योंके नामोंका निर्देश किया जिनमें पूज्यपादन या शब्दका प्रयोग करक ही संतोष धारण कर लिया या तो इसमें कोई बाधा नहीं मानी पोर न जनेन्द्र तथा शाकटायनके वे वे (पूर्वाचार्याक नामोल्लेखवाल ) मूत्र प्रक्षिप्त ही ठहरते हैं। उन्हें प्रक्षित मिद करनेके लिये विशेष प्रमाग्गोंको उपस्थित करनेकी पाठकजीका यह मन भी कुछ ठीक मासूम नही होता; क्योंकि काव. तारसूत्र जैसे प्राचीन ग्रन्थमें भी इन्द्र को शब्दशास्त्रका प्रणेता लिखा "इन्द्रोऽपि महामते अनेकशास्त्रविदग्धबुधि: स्वशब्दशास्त्रप्रणेता" पृ० 174