________________ समन्तभद्रका समय और डा. के.वी. पाठक 321 जरूरत है, जो उपस्थित नहीं किये गये / प्रस्तु। जब एकान्तक्षणानके का लक्ष्मीधर समन्तभद्रके साक्षात् शिष्य ही सिद्ध नही होते पोर न उनके द्वारा उल्लेखित होने मात्र पूज्यपादाचार्य समन्तभद्रसे पहलेके विद्वान् ठहरते है तब यह पर इन सूत्रोंके विषयमें कोई विशेष विचार करनेकी जरूरत ही नहीं रहती; क्योंकि उक्तमूत्र ( 5.4.168 ) की प्रक्षितमा प्राधारपर ही समन्तभटको पूज्यपादके बादका विद्वान् नहीं बतलाया गया है बल्कि एकान्तखानके उत्त. प्रवस रगोंके भाधार पर वैमा प्रतिपादित करके जनेन्द्रक हम मूत्रविषयमे प्रक्षिसाकी कल्पना की गई है, और इस कल्पनाके कारण दूसरे नामोल्लेखवाले मूत्रोंको भी प्रक्षिस कहने के लिये बाध्य होना पड़ा है। परन्तु फिर भी जनेदके "कृवृषिमृजां यशोभदस्य" ( 2.1.16 ) हम नामोल्लेखवाने मूत्रको प्रक्षिप्त नही बतलाया गया। नहीं मालूम इममा पपा कारण है ! बठा हेतु भी ममीचीन मही है. योनि. जब लक्ष्मीपर समन्तभद्रका साक्षाय ही नही था पौर उमने कमाग्लिक मतका खंडन करनेवाले विधानवामी नकका अपने गन्ध में उपेल किया है, तब उसके द्वारा महानायक कुमानि उस्लेख होने में यह नतीजा नहीं निकाला जा सकमा कि ममम मालिक प्रार: मनमायिक प्रभवा माग्लिमे कुछ घोडही ममम पहने हो। पर पहा मातयात. क. प्रायः मानगो समयके माय माय ममयक निको विका / इसमेकी र दाने ~जने ममन्नभद्रका धमंकीलिपा महको पार करके उनके मनाका सरन बना और लामीपरको मागन माय ... ही प्रमिव मिद्ध की भी है. जिनकी मांगलिक काम प्रार: इट भी बन तथा मार नहीं रहना / या दियोर पाप मरीजोहक बतलाया गया है. पहले भी विधानको पात्रो नया विवानन्द-साथ कम उमलमित किया गया है-फोर अहे तथा प्रभारन्द्रका प्रकनकदेव के प्रवर (Junior ) समका. मीन विज्ञान टहराया गया है और मास ही प्रबलदेवो ईमाको प्रारी