SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 353 समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या शरणमें रहकर मोर उससे पदार्थपाठ लेकर भात्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुमा अपनी उस इच्छाको पूरा करने में समर्थ होना चाहता हूँ।' उसका यह प्राशय कदापि नहीं होता कि, 'हे वीतराग देव ! पाप अपने हाथ-पर हिलाकर मेरा मसुक काम करदो, अपनी जबान चलाकर या अपनी इच्छाशक्ति. को काममें लाकर मेरे कार्यके लिये किसीको प्रेरणा कर दो, आदेश दे दो अथवा सिफ़ारिश कर दो; मेरा प्रज्ञान दूर करनेके लिये अपना ज्ञान या उसका एक टुकड़ा तोड़कर मुझे दे दो; मैं दुखी हूँ, मेरा दुख प्राप ले लो और मुझे अपना सुख दे दो; मैं पापी हूँ, मेरा पाप माप अपने सिरपर उठालो-स्वयं उसके जिम्मेदार बन जाप्रो-पौर मुझे निष्पाप बना दो।' ऐसा प्राशय असम्भाव्यको सम्भाव्य बनाने जमा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता व्यक्त करता है। ग्रन्थकारमहोदय देवरूपके पूर्णपरीक्षक और बहुविज्ञ थे। उन्होंने अपने स्तुत्यदेवके लिये जिन विशेषरगपदों तथा सम्बोधनपदोंका प्रयोग किया है और अपने तथा दूसरोंके लिये जैसी कुछ प्रार्थनाएँ की है उनमें असम्भाव्य-जैमी कोई बात नहीं है- सब जंचे तुले शब्दों में देव गुणों के अनुरूप, स्वाभाविक, सुसंभाव्य, युक्तिसंगत और मुसंघटित है / उनसे देवके गुणोंका बहुत बड़ा परिचय मिलता है और देवकी साकार मूर्ति सामने आ जाती है / एमी ही मूर्तिको अपने हृदय-पटलपर अंकित करके ग्रन्थकारमहोदय उसका ध्यान, भजन तथा पाराधन किया करते थे; जैसा कि उनके "स्वचित्तपटयालिख्य जिनं चारु भजत्ययम" (१०१)इम व क्यमे जाना जाता है / मैं चाहता था कि उन विशेषगादिपदों तथा प्रार्थनामोंका दिग्दर्शन कराते हुए यहां उनपर कुछ विशेष प्रकाश डालू और इसके लिये मैने उनकी एक सूची भी तय्यार की थी; परन्तु यह कृति धारणासे अधिक लम्बी होती चली जाती है अत: उस विचारको यहाँ छोड़ना ही इष्ट जान पड़ता है / मैं समझता हूँ ऊपर इस विषयमें जो कुछ लिखा गया है उसपरसे सहृदय पाठक स्वयं ही उन सबका सामंजस्य स्थापित करने में ममर्थ हो सकेगे। वोरसेवामन्दिरमे प्रकाशित ग्रंथके हिन्दी अनुवादमें कही-कहीं कुछ बातोंका स्पष्टीकरण किया गया है, जहाँ नही किया गया और सामान्यत: पदोंका अनुवाद मात्र दे दिया गया है वहाँ भी अन्यत्र कथनके अनुरूप उसका प्राशय समझना चाहिये।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy