________________ 352 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समय जिस प्रकारको कर्मप्रकृतियोंके उदयका प्राबल्य होता है उस समय कार्य प्रायः उन्हींके अनुरूप निष्पन्न होता है / वीतरागदेवकी उपासनाके समय उनके पुण्यगुणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण एवं चिन्तन करने और उनमें अनुराग बढ़ानेसे शुभभावों (कुशलपरिणामों की उत्पत्ति होती है, जिससे इस मनुष्यकी पापपरिणति झूटती मोर पुण्य-परिणति उसका स्थान लेती है। नतीजा इसका यह होता है कि हमारी पापप्रकृतियोंका रस ( अनुभाग) सूखता पौर पुण्यप्रकृतियोंका रस बढ़ता है। पापप्रकृतियोंका रस सूखने पोर पुण्यप्रकृतियोंमें रस बढ़नेसे 'अन्तरायकर्म' नामकी प्रकृति, जो कि एक मूल पापप्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (शक्ति-बल) में विघ्नरूप रहा करती है उन्हें होने नहीं देती-यह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्ट कार्यको बाधा पहुंचानेमें समर्थ नहीं रहती / तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध हो जाते है, विगड़े हुए काम भी सुधर जाते हैं मोर उन सबका श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है। इसीसे स्तुति-बन्दनादिको इष्टफलकी दाता कहा है; जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकवातिकादिमें उद्धृत एक प्राचार्यमहोदयके निम्न वाक्यसे प्रकट है " नेष्टं विहन्तु शुभभाव-मग्न-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः / ___ तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टाथकदाईदादेः।।" जब भले प्रकार सम्पन्न हुए स्तुति-वन्दनादि कार्य इष्ट-फलको देनेवाले है और वीतरागदेवमें कर्तृत्व-विषयका मारोप सर्वथा असंगत तथा व्यर्थ नहीं है बल्कि ऊपरके निर्देशानुसार संगत पौर सुषटित है-वे स्वेच्या-बुद्धि-प्रयत्नादिकी दृष्टिसे कर्ता न होते दुए भी निमित्तादिकी दृष्टिसे कर्ता जरूर है और इस. लिये उनके विषयमें प्रकापनका सर्वथा एकान्त पक्ष घटित नहीं होता; तब उनसे तद्विषयक प्रथवा ऐसी प्रार्थनामोंका किया जाना भी असंगत नही कहा जा सकता जो उनके सम्पर्क तथा शरणमें मानेसे स्वयं सफल हो जाती है मषवा उपासना एवं भक्ति के द्वारा सहज-साध्य होती है। बास्तबमें परमवीतरागदेवसे प्राधना एक प्रकारकी भावना है अपना यों कहिये कि प्रकारकी भाषामें देवके समक्ष अपनी मनःकामनाको व्यक करके यह प्रकट करना है कि में प्रापके परण