________________ समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या 351 हो / क्योंकि उनके पुण्यस्मरण, चिन्तन, पूजन, कीर्तन, स्तवन और आराधनसे जब पापकर्मोका नाश होता है, पुण्यकी वृद्धि और प्रात्माकी विशुद्धि होती हैजैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है-तब फिर कौन कार्य है जो अटका रह जाय * ? सभी कार्य सिद्धिको प्राप्त होते हैं, भक्त जनोंकी मनोकामनाएं पूरी होती है, और इसलिये उन्हें यही कहना पड़ता है कि 'हे भगवन् आपके प्रसादसे मेरा यह कार्य सिद्ध हो गया; जैसे कि रसायनके प्रसादसे प्रारोग्यका प्राप्त होना कहा जाता है / रसायन-औषधि जिस प्रकार अपना सेवन करनेवालेपर प्रसन्न नहीं होती और न इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य ही सिद्ध करती है उसी तरह वीतराग भगवान् भी अपने सेवकपर प्रसन्न नहीं होते और न प्रसन्नताके फलस्वरूप इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न हो करते है। प्रसन्नतापूर्वक मेवन-पाराधनके कारण ही दोनोंमें-रसायन और वीतरागदेवमें - प्रसनन्ताका आरोप किया जाता है और यह अलंकृत भाषाका कथन है / अन्यथा, दोनोंका कार्य वस्तुस्वभावके वशवर्ती, संयोगोंकी अनुकूलताको लिये हुए, स्वतः होता है-उसमें किसीकी इच्छा अथवा प्रसन्नतादिकी कोई बात नहीं है / यहाँ पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे एक बाप्त और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि, संसारी जीव मनसे वचनसे या कायसे जो क्रिया करता है उसमे प्रान्मामें कम्पन (हलन-चलन ) होकर द्रव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमारगुभोंका आत्म-प्रवेश होता है, जिसे 'मानव' कहते हैं / मन-वचन-काय की यह क्रिया यदि शुभ होती है तो उससे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभ कर्मका प्रास्रक होता है। तदनुसार ही बन्ध होता है / इस तरह कर्म शुभअगुभके भेदमे दो भागोंमें बंटा रहता है। शुभकार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे शुभकर्म प्रथवा पुण्यप्रकृति पौर अशुभ कार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होतो है उसे प्रशुभकर्म अथवा पापप्रकृति कहते हैं / शुभाऽशुभ-भावोंकी तर ममता पौर कषायादि परिणामोंकी तीव्रता-मन्दतादिके कारण इन कर्मप्रकृतियों में बगबर परिवर्तन, ( उलटफेर ) अथवा संक्रमण हुमा करता है / जिस - 'पुण्यप्रभावात् किं किं न भवति'-'पुण्यके प्रभावसे क्या-क्या नहीं होता' मी लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है।