________________ 350 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश गई है / आपके चरण-शरणमें पाने से ही मैं सुखी बन गया हूँ, आपने मेरे सारे दु:ख मिटा दिये हैं और मुझे वह दृष्टि प्रदान की है जिससे मैं पपनेको और जगतको भले प्रकार देख सकता हूँ। अब दया कर इतना अनुग्रह और कीजिये कि मैं जल्दी ही इस संसारके पार हो जाऊँ / ' यहाँ भक्त-द्वारा सन्तके विषयमें जो कुछ कहा गया हैं वैसा उस सन्तने स्वेच्छासे कुछ भी नहीं किया / उसने तो भक्तके भोजनादिकी व्यवस्थाके लिये किसीको संकेत तक भी नहीं किया और न अपने भोजनमेसे कभी कोई ग्रास ही उठा कर उसे दिया है; फिर भी उसके भोजनादिकी सब व्यवस्था हो गई। दूसरे भक्तजन स्वयं ही विना किसीकी प्रेरणाके उसके भोजनादिकी सुव्यवस्था करनेमे प्रवृत्त हो गये और वैसा करके अपना अहोभाग्य समझने लगे / इसी तरह सन्तन उस भक्तको लक्ष्य करके कभी कोई खास उपदेश भी नहीं दिया,फिर भी वह भक्त उस सन्तकी दिनचर्या और अवाग्विसर्ग ( मौनोपदशरूप) मुख-मुद्रादिकपरसे स्वयं ही उपदेश ग्रहण करता रहा और प्रबोधको प्राप्त हो गया / परन्तु यह सबकुछ घटित होनेमे उस सन्त पुरुपका व्यक्तित्व ही प्रधान निमित्त कारण रहा हैभले ही वह कितना ही उदासीन क्यों न हो / इसीस भक्त-द्वारा उसका सारा श्रेय उक्त सन्तपुरुषको ही दिया गया है। इन सब उदाहरणोंपरमे यह बात सहज ही समझमें पाजाती है कि किसी कार्यका कर्ता या कारण होने के लिये यह लाजिमी ( अनिवार्य ) अथवा जरूरी नहीं है कि उसके साथमे इच्छा, बुद्धि तथा प्रेरणादिक भी हो, वह उनके विना भी हो सकता है और होता है / माथ ही, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी वस्तुको अपने हाथसे उठाकर देने या किसीको उसके देने की प्रेरणा करके अथवा आदेश देकर दिला देनेसे ही कोई मनुष्य दाता नहीं होता बल्कि ऐसा न करते हुए भी दाता होता है, जब कि उसके निमित्तसे, प्रभावसे, प्राश्रयमें रहनेसे, सम्पर्कमें पानेसे, कारणका कारण बनने से कोई वस्तु किसीको प्राप्त हो जाती है। ऐसी स्थितिमें परमवीतराग श्रीमहन्तादिदेवोंमें कर्तृत्वादि-विषयका प्रारोप व्यर्थ नहीं कहा जा सकता-भले ही वे अपने हाथसे सीधा ( direct) किसी का कोई कार्य न करते हों, मोहनीय कर्म के प्रभावसे उनमें इच्छाका प्रस्तित्व तक न हो और न किसीको उस कार्यकी प्रेरणा या पाशा देना ही उनसे बनता