________________ 361 समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र दृष्टिरूपतः गुणकुशमपि किञ्चनोदितं' (105) इस वाक्यके द्वारा ग्रन्थके कथनको प्रागमहष्टिके अनुरूप बतलाया है / इसके सिवाय, अपने दूसरे ग्रन्थ युक्त्यनुशासनमें 'दृष्टाऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते' इस वाक्यके द्वारा युक्त्यनुशामन (युक्तिवचन) का लक्षण व्यक्त करते हुए यह बतलाया है कि 'प्रत्यक्ष प्रौर मागमसे पविरोधरूप-प्रबाधित-विपय-स्वरूप-अर्थका जो पर्थ से प्ररूपण है-अन्यथानुपपत्येकलक्षण साधनरूप अर्थसे साध्यरूप अर्थका प्रतिपादन है-उसे 'युक्त्यनुशासन' कहते हैं और वही (हे वीरभगवन् ! ) मापको अभिमत है'। इससे साफ़ जाना जाता है कि स्वयम्भूस्तोत्रमें जो कुछ युक्तिवाद है और उसके द्वारा अर्थका जो प्ररूपण किया गया है वह सब जैनागमके अनुकूल है / जैनागमके अनुकूल होनेमे पागमकी प्रतिष्ठाको प्राप्त है / और इस तरह यह अन्य भागमके-प्राप्तवचनके-तुल्य मान्यताकी कोटिमें स्थित है / वस्तुनः समन्तभद्र महान के वचनोंका ऐसा ही महत्व है। इसीसे उनके 'जीवमिद्धि' और 'युक्त्यनुशासन' जैसे कुछ ग्रन्थोंका नामोल्लेख साथमें करते हा विक्रमकी हवीं शताब्दीके प्राचार्य जिनसेनने, अपने हरिवंशपुराणमें, ससन्त भद्रके वचनको श्रीवीरभगवानके वचन (प्रागम) के समान प्रकाशमान एवं प्रभावादिकमे युक्त बतलाया है / और ७वीं शताब्दीके प्रकलंकदेव-जैसे महान विद्वान् प्राचार्यने, देवागमका भाष्य लिखते समय, यह स्पष्ट घोषित किया है कि 'समन्तभद्रके वचनोम उस स्याद्वादरूपी पुण्योदधितीर्थका प्रभाव कलिकाल में भी भव्यजीवोके प्रान्तरिक मलको दूर करनेके लिये सर्वत्र व्याप्त (ख) अनेकान्तोऽपि चैकान्त: स्यादित्येवं वदेत्परः / __ "मनेकान्तोऽप्यनेकान्त" [स्व० 103] इति जनी श्रुतिः स्मृता / -वरांगचरित इस पद्यमें स्वयम्भूस्तोत्रके "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः' इस वाक्यको उद्धत करते हुए उसे 'जनी श्रुतिः' अर्थात् जैनागमका वाक्य बतलाया है / ॐ जीवसिद्धि-विधायीह कृत-युक्त्यनुशासनं / वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते // --हरिवंशपुराण