________________ 360 जैनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश 'समन्तभद्र' पद में संनिहित है / पोर इसलिये इस द्विवीय नामोल्लेखममें लेखकोंकी कोई कर्तृत या गलती प्रतीत नहीं होती। यह नाम भी प्रायः पहलेसे ही इस ग्रन्थको दिया हुआ जान पड़ता है। ग्रन्थका सामान्य परिचय और महत्व स्वामी समन्तभद्रकी यह 'स्वयम्भूस्तोत्र' कृति समन्तभद्रभारतीका एक प्रमुख अंग है और बड़ी ही हृदय-हारिणी एवं प्रपूर्वरचना है / कहनेके लिये यह एक स्तोत्रग्रंथ है-स्तोत्रकीपद्धतिको लिये हए है और इसमें वपभादि चौवीस जिनदेवोंकी स्तुति की गई है; परन्तु यह कोरा स्तोत्र नहीं, इममें स्तुतिके बहाने जैनागमका सार एवं तत्त्वज्ञान कूट कूट कर भरा हमा है / इसीसे टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने इसे 'निःशेष-जिनोक्त-धर्म-विषय.' ऐपा विशेषण दिया है और 'स्तवोऽयमसमः' पदोंके द्वारा इसे अपना सानी (जोड़ा) न रखनेवाला अद्वितीय स्तवन प्रकट किया है। साथ ही, इसके पदोंको 'मूक्तार्थ', 'अमल', 'स्वल्प' और 'प्रसन्न विशेषण देखकर यह बतलाया है कि 'हे मूतहमें ठीक प्रयंका प्रतिपादा करनेवाले है, निर्दोष हैं, अल्पाक्षर हैं और प्रसादगुण-विशिष्ट है / सचमुच इस स्तोत्र का एक एक पद प्राय: बीजपतजैसा मूत्रवाक्य हैं, और इसलिये इसे 'जैनमार्गप्रदीप' ही नहीं किन्तु एकप्रकारसे जैनागम' कहना चाहिये / प्रागम ( श्रुति ) रूपसे इसके वाक्योंका उल्लेख मिला भी है। इतना ही नही, स्वयं ग्रन्थकारमहोदयने 'त्वयि वरदाऽगम. + "मूक्तार्थे रमलः स्तवोऽयसमः स्वल्पः प्रमन्न: पदैः।' जैसा कि कवि वाग्भटके काव्यानुशासनमें पीर जटासिंहनन्दी प्राचार्य के वरांगचरितमें पाये जानेवाले निम्न उल्लेखोंसे प्रकट है (क) प्रागमं प्राप्तवचनं यथा'प्रजापतियः प्रति(य)मं जिजीविषूः शशास कृष्यादिमु कर्मसु प्रजाः / प्रबुद्धतत्त्वः पुनरगुतोदयो ममत्वतो निर्विवदे विदविरः।।" [स्व. 2] -काव्यानुशासन