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________________ 356 समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र ___ग्रन्थकी अनेक प्रतियों में इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'समन्तभद्रस्तोत्र' भी पाया जाता है ! अकेले जैनसिद्धान्त-भवन पारामें ऐसी कई प्रतियां है / दूसरे भी शास्त्रभंडारोंमें ऐसी प्रतियां पाई जाती है / जिस समय सूचियोंपरसे 'समन्तभद्रस्तोत्र' यह नाम मेरे सामने आया तो मुझे उसी वक्त यह खयाल उत्पन्न हुअा कि यह गालबन समन्तभद्रकी स्तुतिमे लिखा गया कोई अन्य है मौर इसलिये उसे देखनेको इच्छा तीव्र हो उठी / मंगानेके लिये लिखा पढ़ी करने पर मालूम हुमा कि यह समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र ही है-दूसरा कोई प्रन्थ नहीं, और इसलिये 'समन्तभद्रस्तोत्र' को समन्तभद्र-कृत स्तोत्र माननेके लिये वाध्य होना पड़ा। एसा मानने में स्तोत्रका कोई मूल विशेपरण नहीं रहता / परन्तु समन्तभद्रकृत स्तोत्र तो पीर भी है उनमेसे किसीको 'समन्तभद्रस्तोत्र' क्यों नहीं लिखा और इसी को कों लिखा ? इममें लेखकोंकी गलती है या अन्य कुछ, यह बात विचारणीय है। इस सम्बन्धमे यहां एक बात प्रकट कर देने की पोर है वह यह कि स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थ प्राय: दो नामोको लिये हुए है; जैमे देवागमका दूसरा नाम 'प्राप्तमीमांसा', स्तुतिविद्याका दूसरा नाम "जिनगतक' और समीचीनधर्मशास्त्रका दूसरा नाम 'रत्नकरण्ड' है। इनमेंसे पहला पहला नाम ग्रन्थ के प्रारम्भमें और दूसरा दूसरा नाम ग्रन्थके अन्तिम भागमें मूचित किया गया है / युक्त्यनुशासनग्रंथ के भी दो नाम है-दूसरा नाम 'वीरजिनम्तोत्र' है, जिसकी सूचना प्रादि और अन्त के दोनों पद्योंमें की गई है। ऐसी स्थितिमे बहुत संभव है कि स्वयम्भूस्तोत्रके अन्तिम पद्य में जो 'समन्तभद्रं' पद प्रयुक्त हुप्रा है उसके द्वारा स्वयम्भूस्तोत्रका दूसरा नाम 'ममन्तभद्रस्तोत्र' मूचित किया गया हो। 'समन्तभद्रं पद वहां वीरजिनेन्द्र के. मत-शामन के विशेषणरूपमे स्थित है और उसका अर्थ है सब मोरमे भदरूप -- यथार्थता, निर्बाधता और परहित-प्रतिपादननादि गुणोंकी शोभासे सम्पन्न एवं जगतके लिये कल्याणकारी'। यह स्तोत्र वीरके शासनका प्रतिनिधित्व करता है-उसके स्वरूपका निदर्शक है-पौर सब पोरसे भद्ररूप है अत: इसका 'समन्तभद्रस्तोत्र' यह नाम भी सार्थक जान पड़ता है, जो समन्तात् भद्रं इस पदच्छेदकी दृष्टिको लिये हुए है और उसमे श्लेषालंकारसे ग्रन्थकारका नाम भी उसी तरह समाविष्ट हो जाता है जिस तरह कि वह उक्त
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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