________________ 21 समन्तभद्रका स्वयम्भस्तोत्र ग्रन्थ-नाम इस ग्रन्थका सुप्रसिद्ध नाम 'स्वयम्भूस्तोत्र' हैं / 'स्वयम्भूशब्दसे यह प्रारम्भ होता है, जिसका तृतीयान्तपद 'स्वयम्भुवा' पादिमें प्रयुक्त हुआ है / प्रारम्भिक शब्दानुसार स्तोत्रोंका नाम रखने की परिपाटी बहुत कुछ रूट है / देवागम, सिद्धिप्रिय, भक्तामर, कल्याणमन्दिर और एकीभाव जैसे स्तोत्र-नाम इसके ज्वलन्त उदाहरण है-ये सब अपने अपने नामके शब्दमे ही प्रारम्भ होते हैं। इस तरह प्रारम्भिक शब्दकी दृष्टि से 'स्वयम्भूस्तोत्र' यह नाम जहां सुघटित है वहाँ स्तुति-पात्रकी दृष्टिमे भी यह मुघटित है; क्योंकि इसमें स्वयम्भुवोंकीस्वयम्भू-पदको प्राप्त चतुर्विशति जैनतीथंकरोंकी-स्तुति की गई है। दूसरोंके उपदेश-विना ही जो स्वयं मोक्षमार्गको जानकर और उमका अनुष्ठान करके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्यम्प प्रात्मविकामको प्राप्त होता है उसे 'स्वयम्भू' कहते है / वृषभादिवीरपर्यन्न चौबीम जननीर्थङ्कर ऐसे अनन्तचतुष्टयादिरूप आत्मविकासको प्राप्त हुए है, स्वयम्भू-पदके स्वामी है और इसलिये उन स्तुत्योंका यह स्तोत्र 'स्वयम्भूस्तोत्र' इम मार्थक संजाको भी प्राप्त है। इसी दृष्टिसे चतुर्विशति-जिनकी स्तुतिरूप एक दूमग म्तोत्र भी, जो 'स्वयम्भू' शब्दसे प्रारम्भ न हो कर 'येत स्वयं बोधमयेन' जैसे शब्दोंसे प्रारम्भ होता है, 'स्वयम्भूस्तोत्र' कहलाता है। + "स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबुद्धध अनुष्ठाय वाऽनन्तचतुष्टयतया भवतीति स्वयम्भूः।"-प्रमाचन्द्राचार्य: