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________________ समन्तभद्रकी स्तुतिवधिा का अनुष्ठान' / सद्भक्तिके द्वारा प्रौदस्य तथा प्रहंकारके त्यागपूर्वक गुणानुराग बढ़नेसे प्रशस्त मध्यवसायको अथवा परिणामोंकी विशुद्धिसे संचित कर्म उसी तरह नाशको प्राप्त होता है जिस तरह काष्ठके एक सिरेमें पग्निके लगनेसे वह सारा ही काष्ठ भस्म हो जाता है। इधर संचित कर्मोके नाशसे अथवा उनकी शक्तिके शमनसे गुणावरोधक कर्मोकी निर्जरा होती या उनका बल क्षय होता है तो उपर उन अभिलषित गुणोंका उदय होता है, जिससे प्रात्माका विकास सधता है। इसीसे स्वामी समन्तभद्र-जम महान् प्राचार्योने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिको कुशल-परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गको मुलभ और स्वाधीन बनलाया है / अपने तेजस्वी तथा मुकृति मादि होनेका कारण भी इसीको निर्दिष्ट किया है मौर इसीलिये स्तुति-वन्दनादिके रूपमे यह भक्ति अनेक नैमित्तिक क्रियानों में हो नहीं, किन्तु नित्यकी षट् पावश्यक क्रियानोंमें भी शामिल की गई है, जो कि सब माध्यत्मिक क्रियाएं है और अन्तष्टिपुरूषों ( मुनियों तथा श्रावकों) के द्वारा प्रात्मगुरगोंक विकासको लक्ष्यमें रखकर ही नित्य की जाती है और तभी वे प्रारमोत्कर्षकी साधक होती है। अन्यथा, लौकिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढि प्रादिक वश होकर करनेसे उनके द्वारा प्रशस्त प्रध्यवमाय नहीं बन सकता मोर न प्रशस्त मध्यवसायके बिना संचित पापों प्रथवा कर्मोका नाग होकर प्रात्मीय-गुरगोंका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है। अन. इम विषयमें लक्ष्यशुद्धि एवं भावद्धिपर दृष्टि रखनेकी खास जरूरत है, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है / बिना विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नहीं होनी और न बिना विवेककी भक्ति मद्भक्ति ही कहलाती है। स्वामी समन्तभद्रका यह स्वयम्भू अन्य ‘म्नात्र' होनेसे स्तुतिपरक है और इसलिए भक्तियोगकी प्रधानताको लिये हा है, इसमे सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है। सच पूछिये तो अब तक किसी मनुष्यका अहकार नहीं मरता तब तक उसके विकासको भूमिका ही तय्यार नहीं होती। बल्कि पहलेसे यदि कुछ + देखो, स्वयम्भूस्तोत्रकी कारिका नं. 116 * देखो, स्तुतिविधाका पर नं०११४
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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