________________ 378 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वर्धमान अनुराग चाहिये और विकासमार्गकी दृढ श्रदा चाहिए / बिना अनुरागके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं होती-अनुरागी अथवा प्रभक्त-हृदय गुणग्रहणका पात्र ही नहीं, बिना परिचयके मननुराग बढ़ाया नहीं जा सकता मौर बिना विकासमार्गकी दृढ़ श्रद्धाके गुरगों के विकासको मोर यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती। और इसलिये अपना हित एवं विकास चाहनेवालोंको उन पूज्य महापुरुषों प्रथवा सिद्धात्मामोंकी शरण में जाना चाहिये, उनकी उपासना करनी चारिये, उनके गुणोंमें अनुराग बढ़ाना चाहिए और उन्हें अपना मार्ग-प्रदर्शक मानकर उनके नक़शे कदमार-पदचिन्होंपर-चलना चाहिये, अथवा उनकी शिक्षामोंपर अमल करना चाहिये, जिनमें प्रात्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें प्रयवा पूर्णरूपमे विकास हुमा हो; यही उनके लिये कल्याणका मुगम मार्ग है। वास्तवमें ऐसे महान मात्मानोंके विकमिन मात्मस्वरूपका भजन और कीर्तन ही हम संमारी जीवों के लिये अपने प्रामाका अनुभवन और मनन है; हम 'मोह' की भावना-द्वारा उसे अपने जीवन में उतार सकते हैं और उन्हीके-प्रथवा परमात्मस्वरूपक-प्रादर्शको सामने रख कर अपने चरित्रका गठन करते हुए अपने प्रात्मीय-गुग्गोंका विकाम मिद्ध कर के तद्रप हो सकते हैं / इस सब अनुष्ठान में उन मिद्धात्माओंकी कृक्ष भी गरज नहीं होती और न इसपर उनकी कोई प्रमग्नता ही निर्भर है-यह मब माधना अपने ही उत्थानके लिए की जाती है। इमीमे मिद्धि ( स्वात्मोपलब्धि ) के साधनोंमें 'भक्ति-योग' को एक मुख्य स्थान प्राप्त है, जिम 'भक्ति-मार्ग' भी कहते है। सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्मामाको भक्तिद्वारा प्रात्मोकपं साधने का नाम ही 'भक्तियोग' अथवा भक्ति मार्ग' है और 'भक्ति' उनके गुणों में अनुरागको, तद्नुकूल वर्तनको अथवा उनके प्रति गुग्णानुरागपूर्वक पादरसत्काररूप प्रवृत्तिको कहते है, जो कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पति एवं रक्षाका साधन है / स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा. सेवा, श्रद्धा पौर प्राराधना ये सब भक्तिके ही रूप अथवा नामान्तर है। स्तुति-पूजा-वन्दनादिके रूप में इस भक्तिक्रिया को 'सम्यक्त्वदिनी क्रिया' बतलाया है, 'शुभोपयोगिचारित्र' लिखा है और साथ ही 'कृतिकर्म भी लिखा है, जिसका अभिप्राय है 'पापकर्म-छंदन