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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
ही तय्यार किया हो, जो देनेके स्थान पर उनके मानेसे पहले ही मौजूद हो और जिसमेंसे दातार कुछ अंश उन्हें भक्तिपूर्वक भेंट करके शेषमें स्वयं संतुष्ट रहना चाहता हो - उसे अपने भोजनके लिये फिर दोबारा आरंभ करनेकी कोई जरूरत न हो । आप भ्रामरी वृत्तिसे, दातारको कुछ भी बाधा न पहुँचाते हुए, भोजन लिया करते थे । भोजनके समय यदि श्रागमकथित दोषोंमेंसे उन्हें कोई भी दोप मालूम पड़ जाता था अथवा कोई अन्तराय सामने उपस्थित हो जाता था तो वे खुशीसे उसी दम भोजनको छोड़ देते थे और इस अलाभके कारण चित्तपर ज़रा भी मैल नहीं लाते थे । इसके सिवाय, श्रापका भोजन परिमित और सकाररण होता था । श्रागममें मुनियोंके लिये ३२ ग्राम तक भोजनकी ग्राज्ञा है परंतु आप उसमे अक्सर दो चार दस ग्राम कम ही भोजन लेते थे, और जब यह देखते थे कि बिना भोजन किये भी चल सकता है— नित्यनियमोंके पालन तथा धार्मिक अनुष्ठानोंके सम्पादन मे कोई विशेष बाधा नही आती तो कई कई दिनके लिए आहारका त्याग करके उपवास भी धारण कर लेते थे; अपनी शक्तिको जांचने और उसे बढ़ानेके लिये भी आप अक्सर उपवास किया करते थे, ऊनोदर रखते थे, अनेक रसोंका त्याग कर देते थे और कभी कभी ऐसे कठिन तथा गुप्त नियम भी ले लेते थे जिनकी स्वाभाविक पूर्तिपर ही ग्रापका भोजन ग्रवलम्बित रहता था । वास्तवमे, समंतभद्र भोजनको इस जीवनयात्राका एक माधनमात्र समझते थे । उसे अपने ज्ञान, ध्यान और संयमादिकी सिद्धि वृद्धि तथा स्थितिका सहायकमात्र मानते थे और इसी दृष्टिसे उसको ग्रहण करते थे । किमी शारीरिक बलको बढ़ाना, शरीरको पुष्ट बनाना अथवा तेजोवृद्धि करना उन्हें उसके द्वारा इष्ट नहीं था । वे स्वादके लिये भी भोजन नहीं करते थे. यही वजह है कि आप भोजनके ग्रामको प्राय विना चबाये ही बिना उसका रसास्वादन किये ही - निगल जाते थे । ग्राप समझते थे कि जो भोजन केवल देहस्थितिको कायम रखने के उद्देश किया जाय उसके लिये रसास्वादनकी जरूरत ही नहीं है, उसे तो उदरस्थ कर लेने मात्रकी जरूरत है। साथ ही, उनका यह विश्वास था कि रसास्वादन करनेसे इन्द्रियविषय पुष्ट होता है, इन्द्रियविपयाके सेवन मे कभी सच्ची शांति नहीं मिलती, उल्टी तृष्णा वह जाती है, तृष्णारोगकी वृद्धि निरंतर ताप उत्पन्न करती है और उस ताप अथवा दाहके कारण यह जीव