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स्वामी समन्तभद्र न्यायकी कसौटी पर कसकर विद्वानोंके सामने रखते थे-वे उन्हें बतलाते थे कि एक ही वस्तुतत्त्वमें अमुक अमुक एकान्त पक्षोंके माननेसे क्या क्या अनिवार्य दोष पाते हैं और वे दोष स्याद्वादन्यायको स्वीकार करनेपर अथवा अनेकान्तवादके प्रभावमे किस प्रकार दूर हो जाते हैं और किम तरहपर वस्तुतत्त्वका सामंजस्य बैठ जाता है । उनके समझाने में दूसरोंके प्रति तिरस्कारका कोई भाव नहीं होता था; वे एक मार्ग भूले हुएको मार्ग दिवाने की तरह, प्रेमके माथ उन्हें उनकी त्रुटियोंका बोध कराते थे, और इसमें उनके भापरणादिकका दूमरोंपर अच्छा ही प्रभाव पड़ता था-उनके पास उमके विरोधका कुछ भी कारण नहीं रहता था । यही वजह थी और यही सब वह मोहन मंत्र था जिममे समनभद्र को दूसरे संप्रदायोंकी ओरसे किसी खास विरोधका मामना प्रायः नहीं करना पड़ा और उन्हें अपने उद्देश्यमें अच्छी मफलताकी प्राप्ति हुई ।
यहाँपर में इतना और भी प्रकट कर देना उचित समझता हूँ कि ममंतभद्र स्याहादविद्याके अद्वितीय अधिपति थे. वे दूसरोंको स्याद्वाद मार्गपर चलनेका उपदेश ही न देते थे बल्कि उन्होंने स्वयं अपने जीवनको स्याद्वादके रंगमे पूरी
& इस विषयका अच्छा अनुभव प्राप्त करने के लिये समंतभद्र का 'प्राप्तमीमामा' नामक ग्रथ देखना चाहिये, जिसे 'देवागम' भी कहते हैं । यहाँपर अदन एकांतपक्षमे दोपोद्भावन करनेवाले उसके कुछ पद्य, नमूनके तौरपर, नीचे दिये जाते हैं
प्रकान्लपक्षऽपि दृष्टो भेदी विरुध्यते । कारकारमा क्रियायाश्च नक स्वस्मात्प्रजायते ॥ २४ ॥ कर्महतं फलानं लोकतं च नो भवेत् । विद्याविद्यादयं न स्याद्बन्धमोक्षद्वयं तथा ।।५।। हेतोरद तसिद्धिश्चेद्वैतं स्याडेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ् मात्रतो न कि ॥२६।। अद्वतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संशिन: प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याहते क्वचित् ।।२७॥